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मध्यकालीन गुजराती शब्दकोश . ५७३
थोडी शब्दार्थचर्चा निंद्य कर्म कर्यु', "आ तो परीक्षा करी. हुं कदी निंद्य कर्म करूं नहीं."
हरिख्या.मां संपादके 'अखत्र'नो 'गंदं' एवो अर्थ आप्यो छे ते पण बराबर नथी. बाग उजाडी नाखवामां आव्यो तेना संदर्भमां एवी पंक्ति आवे छे के जात न रही पुष्प केरी, थयुं परम अखत्र. अहीं 'घणुं खराब – खोटु कार्य थयु | अनिष्ट थयु | नुकसान थयु' एम अर्थ करवो ज योग्य छे.
आरारा.-अंतर्गत राजसिंहकृत 'आरामशोभाचारित्र'मां दीकरीनी अवदशा थयेली छे तेने अनुलक्षीने माता बोले छे के अणचीत्यु ए अखत्र सूं दीसइ ? संपादके आपेलो 'अनिष्ट' अर्थ अहीं बराबर बंध बेसे छे.
भगवद्गोमंडल ‘अखत्र' = 'अखतर'नो 'गंदूं, मेखें, नठारुं' एवो अर्थ नोंधे छे तेमां 'गं,, मेलुं'ना अर्थनो आधार कदाच हरिख्या. होय. बीजा '१. मळ, विष्टा, २. घj, बहु' एवा अर्थो पण नोंधाया छे, पण एना कोई आधारो अपाया नथी. 'पोतानी जातने डाझुं मानतुं मनावतुं' एवो अर्थ आपी निष्कुळानंदनी आ पंक्ति टांकी छे - अति अखतर नर नरसा घणा रे. परंतु एमां 'निंद्य' एवो अर्थ ज होवा संभव छे, पाछळ 'नरसा' (=खराब) शब्द आवतो होवा छतां. आने अर्थनी द्विरुक्ति लेखी शकाय.
९. अगम, निगम - 'अगम' ने 'निगम'नुं जोडकुं घणी वार वपराय छे. एमां ए बे शब्दो खरेखर शुं दर्शावे छे ते विचारवा जेवू छे. एना केटलाक प्रयोगो जोईए. अखाका.मां -
निगम अगम कहे, पार को नव लहे. नरका.मां - * न लहे जोगिया, मुनिवर कोटिया,
निगम ने अगम ते हुने थापी. ** अगम गुरु थकी निगम शिष्य निपना,
ब्रह्मनी वातनो भेद जाणे. मदमो.मां -
* शाहास्त्र भणावो एहने सार, अगंम-नीगंम जे अपरंपार.
* अगंमनीगम जोतीक-जनीन न्याअ-वात पर नेह.. 'निगम' शब्द एकलो वपरायेलो पण मळे छे. पण एनो बधे एकसमान प्रयोग छे. जेमके, चतुचा.मां -
नीगम नेतनेत करी भाखे.
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