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यमिक्उं [जमिवउं] यसउ [जस]
छेल्ले, आ संकलित कोशमां शब्दोनो जे वर्णानुक्रम गोठववामां आव्यो छे ते विशे थोडी स्पष्टता जरूरी छे. एक महत्त्वनो फेरफार करवामां आव्यो छे ते 'ळ'ना स्थान परत्वे. गुजरातीमां 'ळ' वर्णमाळामा छेल्ले मुकाय छे. परंतु घणा शब्दोमां 'ल' 'ळ' वैकल्पिक छे. जेमके कल - कळ, कलियुग - कळियुग, घडियाल - घडियाळ. उपरांत, मध्यकाळनी लिपिमां तो 'ल' ज हतो ने 'ळ' पण 'ल' चिह्नथी दर्शावातो. केटलाक संपादकोए 'ल'नो 'ळ' को होय, केटलाके न कर्यो होय. 'वीसळदेव रासो'मां तो राजस्थानी उच्चारने अनुलक्षीने सर्वत्र 'ळ' ज छे, 'ल' नहीं. 'ल'-'ळ'ना भेदे शब्दोने अलग राखीए तो वस्तुतः एक ज छे ते शब्द बे ठेकाणे नोंधाय. एने कारणे एक ज शब्दना संदर्भो पण बे ठेकाणे वहेंचाई जाय अने शब्द तेमज शब्दार्थनुं समग्र चित्र ऊपसवामां अंतराय ऊभो थाय. आथी, आ संकलित कोशमां 'ळ'ने 'ल'नी साथे ज मूक्यो छे. आथी नीचेना जेवो शब्दक्रम नजरे पडशे.
- अतलिबळ, अतलीबल, अतुलीबल - अमल, अमळ -- आगलिथु
आगळो
आगल्यो - आलति, आलती
आळपंपाळ
आलरां
मध्यकाळनी गुजराती कृतिओनी हस्तप्रतो जोडणीनी एकरूपता दर्शावती नथी. केटलीक वार अल्पशिक्षित, अणघड लहियाओने हाथे लखायेली हस्तप्रतो जोडणीनी अराजकता प्रगट करे छे. मध्यकालीन कृतिओना संपादको पण जोडणीनी एकरूपता भाग्ये ज ऊभी करे छे. सामान्य रीते आपणे त्यां हस्तप्रत मुजब ज जोडणी राखवानुं स्वीकारायं छे. एमां फेरफार करवा जतां अनेक कोयडाओनो सामनो करवानो आवे. आथी एवं बने छे के एक ग्रंथमा जे शब्द इस्व 'इ' के 'उ'वाळो होय ते बीजा ग्रंथमां दीर्घ 'ई' के 'ऊ'वाळो होय; एक ग्रंथमां सानुस्वार शब्द होय ते बीजामां निरनुस्वार होय; एक ग्रंथमांनो 'श'वाळो शब्द बीजा ग्रंथमा 'स'वाळो होय, वगेरे. आवा शब्दो वेरविखेर ज रहे तो एमना विशेनी माहिती पण वेरविखेर रहे, जे कोई वार शब्दार्थनी प्रमाणभूतता प्रगट करवामां बाधक बने. आवा शब्दोने कोई पण रीते सांकळी शकाय
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