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आत्म-प्रशंसा अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा।
अप्पाणं थोवंतो तणलहुदो होदि हु जणम्मि ॥ मनुष्य को अपनी प्रशंसा करना सदा के लिए छोड़ देना चाहिये, क्यों कि अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से उसका यश नष्ट हो जाएगा। अतः जो मनुष्य अपनी प्रशंसा आप करता है, वह जगत् में तृण के समान तुच्छ होता है।
-भगवती-आराधना (३५६) पसंसिअव्वो कया वि न हु अप्पा। मनुष्य को अपनी स्वयं की प्रशंसा कभी नहीं करनी चाहिये ।
--आत्मावबोधकुलक (४०) उन्नयमाणे य णरे, महता मोहेण मुज्झति। अव्यक्त मनुष्य प्रशंसित होने पर मोह से महामूढ़ हो जाता है ।
-आचारांग(१/५/४) मा अप्पयं पसंसइ जइवि जसं इच्छसे धवलं । यदि निर्मल यश चाहते हो तो अपनी प्रशंसा मत करो।
-कुवलयमाला
आत्म-बोध दम-शम-समत्त-मित्ती-संवेअ-विवेअ-तिव्व-निव्वेआ।
एए पगूढ़अप्पा-वबोहबीअस्स अंकुरा ॥ इन्द्रिय-दमन, मनोविकार-शमन, सम्यक्त्व, मैत्री, संवेग और तीव्र निवेदये सब आत्म-बोध-बीज के अंकुर हैं।
-आत्मावबोधकुलक (३) ता दुत्तरो भवजलही, ता दुज्जेओ महालओ मोहो। ता अइ विसमो लोहो, जा जाओ नो निओ बोहो॥
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