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अपूर्ण रहती हैं । उसके लिए सिद्धि उससे दूर रहती है और लक्ष्मी उसके दुःख का कारण बनती है
जो अप्पाणि वसेइ, सो लहु
जो निज आत्मा में वास करता है, वह करता है ।
- योगसार - योगेन्दुदेव ( ६५ )
जे अण्णांसी से अणण्णारामे, जे अणणारामे, से अण्णदंसी ।
जो 'स्व' से अन्यत्र दृष्टि रखता है, वह 'स्व' से करता है और जो 'स्व' से अन्यत्र नहीं रमण करता है, दृष्टि भी नहीं रखता है ।
- आत्मावबोधकुलक (६)
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पावइ सिद्धि सुहु ।
शीघ्र ही सिद्धि-सुख को प्राप्त
जो एक को जानता है, वह सबको जानता है, सारे जगत् को जानता है और जो सबको जानता है, सारे जगत् को जानता है, वह एक को, अपने आपको जानता है ।
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अन्यत्र रमण भी नहीं वह 'स्व' से अन्यत्र
- आचाराङ्ग ( १/२/६/६ )
जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ ॥
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ण याणंति अपणो वि, किन्नु अण्णेसि | जो स्वयं को नहीं जानता वह दूसरों को क्या जानेगा ?
-आचाराङ्ग ( १/३/४/२ )
वदणियमाणि धरता, सीलाणि तहा तवं च कुन्वंता । परमट्ठबाहिरा जे, णिव्वाणं ते ण विदन्ति ॥
भले ही व्रत - नियम को धारण कर ले, तप और शील का आचरण कर ले ; किन्तु जो परमार्थ रूप आत्म-बोध, आत्म-दर्शन से निर्वाण - पद प्राप्त नहीं कर सकता है ।
शून्य है, वह कभी
- समयसार (१५३ )
-आचाराङ्ग - चूर्णि ( १/३/३ )
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