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इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण माणण्ण, पूयणाए जाइमरण मोयणाए दुक्खपडिघायहेउं । अनेक संसारी प्राणी जीवन को चिरकाल तक बनाए रखने के लिए, यश-ख्याति पाने की इच्छा से, सत्कार और पूजा-प्रतिष्ठा पाने की अभिलाषा से, जन्म-मरण तथा दुःखों से छुटकारा पाने की आकांक्षा से हिंसा आदि दुष्कृत्यों में प्रवृत्त होते हैं ।
- -आचाराङ्ग ( १/१/१/११) अप्पेगे हिंसिसु मेत्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसति मेत्ति वा वहति,
अप्पेगे हिसिस्संति मेत्ति वा वहति । 'इसने मुझे मारा'-कुछ इस विचार से हिंसा करते हैं । 'यह मुझे मारता है'-कुछ इस विचार से हिंसा करते हैं। यह मुझे मारेगा'—कुछ इस विचार से हिंसा करते हैं।
-आचाराङ्ग (१/१/६/६) सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविषो जीविउकामा, सव्वेसिं जीवियं पियं, नाइवाएज कचणं । प्राणीमात्र को अपनी जिन्दगी प्यारी है। सुख सबको प्रिय है और दुःख अप्रिय । वध सबको अप्रिय है और जीवन प्रिय । सब प्राणी जीना चाहते हैं । कुछ भी हो, एक बात तो निश्चित है कि सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है । इसलिए कोई किसी भी प्राणी की हिंसा न करे।।
-आचाराङ्ग ( १/२/३/४) आरम्भ दुक्खमिणं। ये सब दुःख हिंसा में से उत्पन्न होते हैं, आरम्भज हैं ।
-आचाराङ्ग ( १/३/१/५) तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वं ति मनसि । जिसको तु मारना चाहता है, वह तू ही है ।
-आचाराङ्ग ( १/५/५/५)
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