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से हु पन्नाणमंते बुद्ध आरंभोवरए । वही प्रज्ञावान बुद्ध है, जो हिंसा से उपरत है ।
-आचाराङ्ग (१/४/४/३) रागादीणमणुप्पा अहिंसगतं । रागादिक का उत्पन्न न होना वस्तुतः अहिंसा है ।
-सर्वार्थसिद्धि (७/२२/३६३/१०) सायं गवेसमाणा, परस्स दुक्खं उदीरंति । कुछेक मनुष्य स्वयं के सुख की शोध में दूसरों को दुःख पहुँचा देते हैं ।
-आचाराङ्गनियुक्ति (६४) सतं तिवायए पाणे अदुवा अण्णेहिं घायए।
हवंतं वाऽणुजाणाइ वेरं वड्ढेति अप्पणो ॥ जो व्यक्ति स्वयं किसी प्रकार से प्राणियों का वध करता है अथवा दूसरों से वध कराता है या प्राणियों का वध करते हुए अन्य व्यक्तियों का अनुमोदन करता है, वह संसार में अपने लिए वैर बढ़ाता है।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१/१/३) तमाओ ते तमं जंति, मंदा आरंभनिस्सिया। पर-पीड़ा में लगे हुए जीव अंधकार से अंधकार की ओर गमन करते हैं ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१/१/१४) एतं खु नाणिणो सारं जं न हिंसति किंचणं । ज्ञानियों के ज्ञान का निष्कर्ष यही है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे।
- सूत्रकृताङ्ग ( १/१/४/१०) वेराई कुव्वती वेरी, ततो वेरेहिं रज्जती।
पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो॥ प्राणीघातक, वैरी-शत्रु बनकर जब देखो तब वैर ही करता रहता है। वह अनेक जीवों से वैर बांधता है और नित्य नये वैर में संलग्न ही रहता है। ३८
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