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तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं, तच्चाण होदि अत्थाणं । तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धा का अभाव ही मिथ्यात्व है।
- पञ्चसंग्रह (१/७) जो जहवायं न कुणई, मिच्छादिट्ठी तओ हु को अन्ना । वड्ढइ य मिच्छत्तं, परस्स संकं जणेमाणो॥ जो तत्त्व-विचार के अनुसार नहीं चलता, उससे बड़ा मिथ्यादृष्टि कोन हो सकता है ? वह दूसरों को शंकावान बनाकर अपने मिथ्यात्व को समृद्ध करता है।
-उत्तराध्ययन ( ३७/१३) मिच्छत्तपरिणदप्पा, तिब्वकसारण सुटु आविट्ठो।
जीवं देह एक्कं मण्णंतो। मिथ्यादृष्टि जीव तोत्र कषाय से पूर्णरूपेण आविष्ट होकर आत्मा और शरीर को एक मानता है।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( १९३) हा! जह मोहियमदणा, सुग्गइमग्गं अजाणमाणेणं ।
भीमे भवकतारे, सुधिरं भमियं भयकरम्मि ॥ हा ! दुःख है कि सुगति का मार्ग न जानने के कारण मैं मूढ़मति भयानक और घोर भव-वन में चिरकाल तक परिभ्रमण करता रहा।
-मरणसमाधि (५६०) जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकडुगिदा होति । ते तस्स कडुगदोद्धियगदं च दुद्ध हवे अफला ॥ यद्यपि अहिंसा आदि आत्मा के गुण हैं, परन्तु मरण-समय ये मिथ्यात्व (अविद्या) से युक्त हो जायें तो कड़वी तुम्बी में रखे हुए दूध के समान व्यर्थ होते हैं।
- भगवती आराधना (५७) तह मिच्छत्तकडुगिदे जीवे तव णाण चरण विरियाणि । णासंति वंतमिच्छत्तम्मि य सफलाणि जायंति ॥
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