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सगुणाण निग्गुणाण य गरुया पालंति जंजि पडिवन्न । पेच्छह वसहेण समं हरेण बोलाविओ अप्पा ॥ महापुरुष सगुणों और निर्गुणों में जिसका जो कार्य स्वीकार कर लेते हैं ; उसकी रक्षा करते हैं। देखो, शिव ने बैल के साथ अपना सारा. जीवन व्यतीत कर दिया।
-वजालग्ग ( ६/६) तद्दियहारंभवियावडाण मित्तक्ककज्जरसियाणं ।
रविरहतुरयाण व सुपुरिसाण न हु हिययवीसामो॥ सूर्य के रथ के घोडों के समान सत्पुरुषों को हार्दिक विश्राम नहीं ही मिलता है। सूर्य के रथ के घोड़े उस दिन का आरम्भ करने में संलग्न रहते हैं
और सत्पुरुष उसी दिन आरम्भ किए हुए कार्य में व्यापृत रहते हैं। सूर्य के रथ के घोड़ों को एक मात्र सूर्य के काम में ही आनन्द मिलता है तो सत्पुरुषों को मित्र के एक मात्र कार्य को पूर्ण करने में हो आह्लाद मिलता है।
-वजालग्ग (१०/१३)
मिथ्यात्व ( अविद्या) रुधियछिद्दसहस्से, जलजाणे जह जलं तु णासवदि । मिच्छत्ताइअभावे, तह जीवे संवरो होइ॥ जिस प्रकार जलयान के हजारों छिद्रों को बन्द कर देने पर उसमें पानी नहीं आ सकता, उसी प्रकार मिथ्यात्व आदि के दूर हो जाने पर जीव में संवर हो जाता है । नवीन कर्मों का आगमन रुक जाता है ।
-नयचक्र ( १५५) मिच्छत्तं वेदंतो जीवो, विवरीय दंसणो होइ।
ण य धम्म रोचेदि हु, महुरं पि रसं जहा जरिदो॥ जो जीव मित्थात्व से ग्रस्त है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता।
-पञ्चसंग्रह (१४६) २०८ ]
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