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भोगी-अभोगी अल्लो सुक्को य दो छूढा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिआ कूडे, जो अल्लो सो विलग्गइ ॥ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गंति, जहा सुक्के अ गोलए ॥ जिस प्रकार गीली और सूखी मिट्टी के दो गोले दीवार पर फैंकने पर एक चिपक जाता है तो दूसरा वापस नीचे गिर जाता है, इसी प्रकार जो मनुष्य विषयों की लालसावाले होते हैं, वे गीली मिट्टी के गोलेवत् विषयों में ही लिपट जाते हैं परन्तु सूखी मिट्टी के गोलेवत् अभोगी-विरक्त मनुष्य विषयों में लिपटते नहीं हैं।
-इन्द्रियपराजय-शतक ( १६-२० ) विसए अवइक्खंता, पडंति संसारसायरे घोरे।
विसएसु निराविक्खा, तरंति संसारकतारे ॥ विषयों की अपेक्षा रखनेवाले भयंकर संसार-समुद्र में गिरते हैं और विषयों में निरपेक्ष मनुष्य संसार रूपी अटवी को पार कर जाते हैं ।
-इन्द्रियपराजयशतक (२८) उवलेवो होइ भोगेसु, अभोग नोवलिप्पई ।
भोगी भमइ संसारे, अभोगी विष्पमुच्चई ॥ भोगों में कर्म का उपलेप होता है। अभोगी कर्मों से लिप्त नहीं होता है। भोगी संसार में भ्रमण करता है। अभोगी उससे विप्रमुक्त हो जाता है ।
-उत्तराध्ययन ( २५/४१)
मंगल णमो अरिहंताणं । णमो सिद्धाणं । णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सब्यसाहूणं
एसो पंचणमुक्कारो, सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सम्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥
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