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तृतीयकाण्डम्
३४०
नानाथवर्गः
अपदेशो निमित्ते स्यात् पदे लक्ष्ये वशी स्त्रियाम् ॥ २३५ ॥ ॥
करिण्यपि ..
. इति शान्ताः ।
सुरे मत्स्येऽनिमिषो विषैमप्सु च । आकर्ष: शारिफलके छूतेऽक्षेऽप्यथ किल्विषैम् ॥ २३६ ॥ अपराधेऽपि पक्षस्तु सहायेऽथात्ममानवौ । पुरुषोऽधिकृतेऽध्यक्षः प्रत्यक्षेऽप्यथ वीरुधि ॥ २३७॥ कक्ष स्तृणेsपि, काको मत्स्यात्वगोध्वांक्षे इष्यते । भारतादावन्द वृष्टयो वर्ष * मस्त्र्यथ पौरुषम् || २३८ ।। भावे तत्क्रियायां च भिक्षा सेवार्थना भृती | (१) 'अपदेश' निमित्त व्याज पद लक्ष्य में पु० । (२) 'वशा वन्ध्या सुता' स्त्री गवी करिणी में स्त्री ० । इति शान्ताः ।
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(३) 'अनिमिष' सुर मत्स्य में पु० । ( ४ ) 'विष' गरल जल में नपुं० । (५) ' आकर्ष' द्यत इन्द्रिय पाशक शारिफलक कोदण्डाभ्यास वस्तु आकर्षण में पु० । (६) 'किल्विष' पाप रोग अपराष में नपुं० । (७) 'पक्ष' मासार्ध पार्श्व ग्रह साध्य अविशेष केशादिवृन्द बल सखि सहाय चुल्लीरन्ध्र पतत्र वाजी कुञ्जर के पार्श्व में पु० । (८) 'पुरुष' पूरुष सांख्यज्ञ पुन्नागवृक्ष में पु० । (९) 'अध्यक्ष' अधिकृत प्रत्यक्ष में पुं० । (१०) 'वक्ष' भुजामूल अरण्य वीरुध (लता) शुष्कतृण और कच्छ में पु०, 'कक्षा' स्पर्धापद काञ्च रथ गेह प्रकोष्ठ गजरज्जु वस्त्र के अञ्चल में स्त्री० । (११) 'ध्वांक्ष' काक मत्स्य भक्षकपक्षा भिक्षुक तक्षक में पु० । (१२) 'वर्ष' जम्बू द्वीपदी भारतादि अन्द वृष्टि में पु० नपुं०, 'वर्षा:' प्रावृदकाल में बहुवचनान्त स्त्री० । (१३) 'पौरुष' पुंभाव पुरुषकर्म पुरुषतेज मेंनपुं०, ऊर्ध्ववस्तृत दो पाणि नृपन में तो त्रि० विशेषण है । (१४) 'भिक्षा' मृति (वेतन) याचना सेवा भिक्षतवस्तु में स्त्री० ।
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