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नानार्थवर्गः ३
'निवोsपह्नवेऽविश्वासेऽपि ना निकृतावपि ॥ २३९ ॥
॥ इति वान्ताः ॥
तृतीयकाण्डम्
३३९
शिश्est बालिशो, रौशीपुञ्ज मेषौ कुश जले | आशादिक तृष्णयो, र्वर्शः कुले वा मस्करे रहः ||२३२|| प्रकाशेऽपि च वीकाशः कठोरादौ तु कर्कशः । : निर्देशो भोग भृत्योच कीनाशः क्षुद्रकर्षयोः ॥२३३॥ कृतान्ते यदि पुंस्येव स्थिति वर्त्त्यादयो दशीः । ज्ञाने ज्ञातरि हगें वैश्य मनुजौ तु विशे स्पर्शेः ॥२३४॥ संपराय चरौ ख्याते प्रकाशः स्फुट् आतपे ।
(१) 'निह्नत्र अपह्नव ( छुपाना) अविश्वास निकृति [ कलह ] अपलाप [प्रस्तुत विषय को बदलकर प्रकारान्तर से संगत जैसा समाचान करना ] में पु० । इति वान्ताः ।
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(२) 'बालिश' शिशु अज्ञ में पुं० । (३) 'राशि' धान्य आदि के पुञ्ज में मेष वृष आदिलग्न में पु० । ( ४ ) 'कुश' जल में नपुं० रामपुत दर्भ योक्त्र दोप में पु० । (५) 'आशा' दिशा तृष्णा में बो० । (६) 'वंश' कुल वेणु वर्ग मेरुदण्ड में पु०, । (७) 'वीकारा' विकाश विजन प्रकाश [ व्यक्त ] में पु० । (८) 'कर्कश' कठोर [ परुष] क्रूर कृपण निर्दय दृढ इक्षु साहसिक कासमर्द कामिल्ल में पु० । (९) 'निर्वेश' भोग वेतन मूर्च्छन में बु० । (१०) "कीनाश' कर्षक क्षुद्र उपांशु घाती में त्रि० कृतान्त में पु० ] ( ११ ) 'दशा' अवस्था दोपवर्ति में स्त्रो०, वस्त्रान्त में बहुवचन | (१२) 'दृक्' श, दर्शन नेत्र बुद्धि में त्र े०, वोक्षक में त्रि० । (१३) 'विश्' वैश्य मनुप्रवेश में पु० । (१४) 'स्पर्श' संपराय चर [ प्रणिधि] में पु० । (१५) 'प्रकाश' अतिप्रसिद्ध आतप स्फुट प्रहास में पु० ।
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