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तृतीयकाण्डम्
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नानार्थवर्गः ३
मेधुरो यः प्रियः स्वादु जेठरः कठिनेऽपि च । भेदे प्रकारः सादृश्ये द्वापर : संशये युगे ॥२०७॥ विशिखे श(स) स्य शुकेsपि किशारु गर्ति गुरुः । पर्यङ्के परिवारे वा वाते परिकरः स्मृतः ॥ २०८॥ अंद्रिरर्क दु शैलाः स्यु व्रणकारिण्य रुष्करः । farasat वा नामेरु गिरि धन्वनोः ॥ २०९ ॥ अन्तर्षि भेदतादर्थे च्छिद्राssत्मीय विना बहिः । मध्येsaकाशावसर परिधानान्तरात्मसु ॥२१० । अवधावन्तरं संस्तरोऽध्वरे प्रस्तरेऽपि च । इति रान्ताः ।
द्रु
(१) 'मधुर' प्रिय स्वादु शोभन रस रसवत् विष में त्रि० । (२) 'जठर' कुक्षि बद्ध कक्खट (कठोल) में पु नपुं० । ( ३ ) 'प्राकार' भेद सादृश्य में पु० । ( ४ ) द्वापर युग संशय में पु० ; (५) 'किंशारु' शस्य शूक बाण कङ्कपत्री में पु० । ( ६ ) गीति ( गीष्पति) बृहस्पति में पु० । ( ७ ) परिकर वात पर्यङ्क परिवार प्रगाढ गात्रिकाबन्ध विवेक आरम्भ में पु० ( त्रिकाण्डशेष ने तो 'आरम्भ यत्न' को परिकर माना है) । (८) 'अद्रि' अर्क म शैल में पु० । ( ९ ) ( अरुप्कर' व्रणकृति में त्रि० भल्लातक ( भिलावा) पुं० । (१०) 'वार' सूर्यादि दिवस में अवसर वृन्द कुब्जवृक्ष हर हार में पु० मद्यभाजन में नपुं० । (११) ' मरु गिरि विशेष मेंधन्वा ( धन्वन् ) में पु० । (१२) 'अन्तर' अन्तर्धि भेद ताद छिद्र आत्मीय विना बर्हिस मध्ये अवकाश अवसर परिधान अन्तरात्मा अवधि में त्रि० । (१३) 'संस्तर प्रस्तर और अध्वर में पु० । (१४) 'प्रस्तर' मणि पाषाण में पु० । इति रान्ताः ।
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