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तृतीय काण्डम्
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नानाथवर्गः ३ उद्दीप्त शुल्कयोः शुभ्रः क्रूरः कठिन निर्दयौ । पक्षेपि वाहने पत्र पात्रं भाजन योग्ययोः ॥२०३॥ स्वर्णेऽपि चन्द्रो भूरि कायेऽपि विषयेऽजिंरम् । जटाया मंशुके नेत्र शास्त्रं ग्रन्थनिदेशयोः || २०४ || देशोपद्रवोरख राष्ट्रं स्यात्क्षीरमप्सु च । rsssयो एकाग्रः स्यादनाकुलः ॥ २०५ ॥ उत्तरस्तू परिश्रेष्ठो दीच्येष्वन्यो ह्यनुत्तरः । त्रिं लोहाssयुधे क्लीवं पैरो दूरोत्तमाऽरयः ॥ २०६ ॥
(१) 'शुभ्र' उद्दीप्त शुक्ल में त्रि अभ्रक में नपुं० । (२) 'क्रूर' कठिन नृशंस (निर्दय ) घोर (भयङ्कर) में त्रि० । (३) 'पत्र' वाहन पक्ष शर पर्ण में नपुं० । (४) 'पात्र' भाजन योग्य तीरइयान्तर सुवादि पर्ग राजमन्त्री में नपुं० । (५) चन्द्र' कर्पूर काम्पि ल्य (कामिल) सुधांशु स्वर्ण चारु में पु० । (६) 'भूरि' वासुदेव हरे परमेष्ठी में पु० सुवर्ण प्राज्य में नपुं० । (७) अजिर काय विषय प्राङ्गण वात दर्दर में नपुं० चण्डी में त्रो० । (८) 'नेत्र' मथिग्रण वस्त्रभेद वृक्षमूल रथ चक्षुष में नपुं० नाड। नदा में खो० नेता में त्रि० । (९) 'शास्त्र' ग्रन्थ निदेश (आज्ञ ) में नपुं० । (१०) 'राष्ट्र' देश और उपद्रव में पु० नपुं० । (११) 'क्षीर' दुग्धजल में नपुं० । (१२) 'अधर' ओष्ठ में पु० हीन में अनुर्ध्व में त्रि० । (१३) 'एकार्ग' एकतान अता कुल में त्रि० । (१४) 'उत्तर' प्रतिवाक्य में नपुं० विराटतनय में पु० विराटननया में स्त्रो० उत्तरा ऊर्ध्व उदोच्य उत्तम में त्रि० । (१५) 'अनुत्तर' उत्तरविरुद्ध सर्वश्रेष्ठ अनुत्तर विमान में विशेष्यचिङ्ग । (१६) 'शत्रु' लोह आयुध में नपुं० ' शस्त्र' छुरिका में स्त्री० । (१७) 'पर' दूर उत्तम अरि उत्तर में पु० केवल में नपुं० ।
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