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तृतीयकाण्डम्
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नानार्थवर्गः ३ भवेत्प्रतिसरः पुंसि चमू जघनयोरपि ॥१९८॥ कौन्तारः स्यान्महारण्ये तथा दुर्गपथे स्त्रियाम् । गृह्येऽप्यवस्करो यूपखण्डे यज्ञे स्वरुः पुमान् ॥१९९॥ बल स्थिरांशयोः सारः क्लीबं न्याय्ये वरे त्रिषु । विटपि न्यासने दर्भमुष्टयां स्याद् विष्टरः पुमान्।।२००॥
संगरस्तु प्रतिज्ञाऽऽजि संविदापत्स्वेथो रवौ । मित्र: स्वर्णेऽपिराः स्त्रीणां स्तनौ वन्दः पयोधरः।।२०१॥
मैंन्त्रो गुह्यादिवादेऽथ क्षेत्र" पत्नी शरीरयोः । व्यासक्ताऽऽकुलयोर्व्यः स्वैरें: स्वच्छन्दमन्दयोः॥२०२॥
(१) 'प्रतिसर' चमू पृष्ठ मन्त्रभेद माल्य कङ्कण व्रणशुद्धि में पु०, मण्डल में पु० नपुं०, आरक्ष करसूत्र जघन्य अर्थात् नियोज्य में त्रि० । (२) 'कान्तार' अरण्यानी बिल दुर्गमार्ग में पु० नपुं०, इक्षुविशेष में पु० । (३) 'अवस्कर अवस्कार' वर्चस्क (विष्ठा) गुह्य में पु०। (४) 'स्वरु' यूपस्खण्ड यज्ञ भिदुर में पु० । (५) 'सार' बल स्थिरांश मज्जा (लज्जावद्राजवनमज्जा) मांस साराऽस्थि सारयोरिति भागुरे राबन्तोऽपि) में पु० न्याय्य जल धन में नपुं० वर में त्रि. 'शार' तो वायु में पु०, सबल में विशेष्यलिङ्ग । (५) 'विष्टर' विटपीदर्भमुष्टि पोठफल कादि आप्सन में पु० । (६) 'संगर' प्रतिज्ञा युद्र संविद् (अर्थात्-आचार ज्ञानयुद्ध संभाषण नियम संकेत नाम तोषण) विष आपत् में पु. शमीफल नपुं० । (७) 'मित्र' आदित्य में पु० सुहृद में नित्य नपुं० । (८) राः (रै) स्वर्ण वित्त में पु० । (९) पयोधर' स्तन मेघ नारिकेर कशेरु कोषकार में पु० । (१०) 'मन्त्र' वेदविशेष देवादिसाधन गुह्यवाद में पु० । (११) 'क्षेत्र' शरीर केदार सिद्धस्थान कलत्र में नपुं० । (१२) 'व्यग्र' व्यासक्त आकुल में त्रि० । (१३) 'स्वैर' मन्द स्वच्छन्द में पु० स्वैरी स्त्री० ।
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