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तृतीयकाण्डम्
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नानार्थवर्गः३ अर्थानपेत आत्मज्ञोऽर्थः सौम्यं सुन्दरादिषु ॥१७२॥ वक्तव्यं कुलिटे होने कल्यः शज्जे निरामये । छायात्वना तपेऽपि स्यात्प्रतिबिंबायोषिताः॥१७३॥ जनवादेऽपि जन्योऽथ जयन्य श्चामेऽधमे । व्यसनेऽनिष्ट देवेपि विपद्यप्यनयः क्रमे ॥१७४॥ पैर्यायोऽवसरेऽप्येयः स्याद् वैश्य स्वामिनोरपि । त्रिषु क्रिया देवतयो भैये कृत्या धनादिमिः॥१७५॥ कशेरौ हेम्नि गांगेयं भ्रातृव्यो भ्रातृजे द्विषि ।
हिन्दी-(१) 'अर्थ्य' अर्थयुक्त आत्मवान् न्याय्य में त्रि०, शिला जतु में नपुं० । (२) 'सौम्य' सोमात्मज अनुप्र मनोज्ञ सोमदैवत में त्रि०, मृगशिरः शिरःस्थ पञ्चतारकः (इल्वला) में बहुवचन स्त्री० । (३) 'वक्तव्य' कुत्सित होन वंचनाह में त्रि० । (४) 'कल्य' प्रभात में नपुं०, वाक्श्रुति वर्जित सज्ज नीरोग दक्ष कल्याणवचन उपायवचन में त्रि०, मध में स्त्री०। (५) 'छाया' अनातप 'प्रतिबिंब सूर्यपत्नी में स्त्री० । (६) 'जन्यं' हट्ट जनवाद (परीवाद) संग्राम में नपुं०, 'जन्या' मातृवयस्या में स्त्री०, 'जन्यः' जनक में पु०, 'जन्य' उत्पाद्य जनित नवोढा ज्ञात भृत्य वस्निग्ध में त्रि । (७) 'जघन्य' चरम शिशन में नपुं०, अधम (निन्ध) में त्रि० । (८) 'अनय' व्यसन अनिष्टदेव विपत् में पु०। (९) 'पर्याय' प्रकार निर्माण अवसर क्रम में पुं० । (१०) 'अर्थ' स्वामी वैश्य में पु० । (११) 'कृत्या' क्रिया देवता धनादि भेद्य विद्विद विद्वान में त्रि० । (१२) 'गाङ्गेय' स्वर्ण कशेरु में नपुं०, भीष्म में धु० । (१३) 'भ्रातृव्य भातृज और हिट में पु० ।
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