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तृतीयकाण्डम्
३२४ नानार्थवर्गः ३ कर्म भाग्यं रहस्योप स्थयो गुइयं कलौ युगे ॥१६॥ पुष्ये तिष्यो विशल्यातु दन्तिका नाम शोभयोः । अभिख्या विषयो ज्ञातो यस्तु शब्दादिकेष्वपि॥१६९।। अग्न्यक्षस्थानगेहेषु "धिष्ण्यं शपथतथ्ययोः । सत्य कायो निर्यासे वीर्य बलप्रभावयोः ॥१७॥ स्थूलोस्चयस्त्व साकल्ये गण्डोपलकरण्डयोः । कक्ष्या प्रकोष्ठ मध्येभ बन्धकाचीषु मध्यमम् ॥१७॥ न्याय्ये हेप्यं प्रशस्तेऽपि रूपे पुण्यं तु चापि ।
(१) 'भाग्य' शुभाऽऽवह विधि में शुभाशुभ कर्म में नपुं० । (२) 'गुहय' रहस्य उपस्थ में नपुं०, कमठ दम्भ में पु० । (३) तिष्य' कलियुग पुष्य नक्षत्र में पुं०, 'तिष्या' घात्री में स्त्री । (४) 'विशल्या' दन्ती अग्नि शिखा (इन्द्रपुष्पी) गुडुची त्रिपुटा (छोटी इलायची) में स्त्री० । (५) 'अभिख्या' नाम (अभिधान) शोभा यश में स्त्रो० । (६) 'विषय' गोचर देश जनपद (जनावास) जिसके प्रबन्ध से जो ज्ञात होसके उस रूपादिक में पु० । (७) 'धिष्ण्य' अग्नि ऋक्ष स्थान गृह शक्ति में नपुं० । (८) 'सत्य' सत्ययुग शपथ तथ्य में नपुं० तद्वान् में त्रि० । (९) कषाय' रसभेद अङ्गराग विलेपन निर्याप्त में पु० नपुं., सुरभि लोहित् में अन्यवत् । (१०) 'वीर्य' सामर्थ्य प्रभाव शुक्र तेज में नपुं. । (११) 'स्थूलोच्चय' असाकल्य गण्डोपलकरण्ड में पु.. (१२) 'बहती' अर्थात् क्षुद्रवार्ता की आदि में हादि प्रकोष्ठ में मध्ये भबन्धन अर्थात् हाथी का पेटकस में और काञ्ची में स्त्री. । (१३) 'मध्य' न्याय्य अवलग्न अन्तर अधम में त्रि. । (१४) 'रूप्य' आयत स्वर्ण रजत में नपुं., सुन्दर में त्रि. । (१५) 'पुण्य' मनोज्ञ में त्रि०, सुकृत धर्म में नपुं. ।
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