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तृतीयकाण्डम्
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नानार्थवर्ग:३ "सूक्ष्म ललाम पुच्छाऽश्व भूषा प्राधान्यकादिषु।।१६४॥ ललाम धर्म आचार स्वभाव न्याय सोमपाः । प्रथमस्तु प्रधानादी................इति मान्ताः । ................वान्यो दातृ वाग्मिनाः ॥१६५॥ समुच्छयो विरोधेऽपि द्रव्यं भव्य गुणाश्रयो । तुरंगे गरुडे ताक्ष्यों मन्यु दैन्ये क्रुधि क्रतौ ॥१६६॥ समयः काल सिद्धान्त शयथाऽऽचारसंविदः । श्वशुर्यों देवरः श्यालः पर्यधपि प्रतिश्रयः ॥१६७॥ प्रेम विश्रम्भ याश्चासु प्रणयो यच्छुभाऽशुभम् ।
(१) 'ललाम [न] ललाम' प्रधान ध्वज शृङ्ग पुण्डू अर्थात् अश्वादि ललाट चित्र अश्वभूषा अश्व प्रभाव में नपुं० । (२) 'धर्म' आचार स्वभाव न्याय पुण्य उपमा क्रतु अहिंसा उपनिषद् में पु. नपुं०, धनुष यम सोमपमें पु० । (३) 'प्रथम' प्रधान आदि बोधक में विशेष्यलिङ्ग । इति मान्ताः । (४) 'वदान्य' दाता वाग्मी में त्रि० (५) 'समुच्छ्रय' वैर उन्नतो में पु० । (६) 'द्रव्य' द्रविण भव्य पृथिव्यादि पित्तल भेषज विलेप रीति जतु द्रुम विशेष में नपुं० । (७) 'तार्थ्य' तुरंग सर्प गरुडाग्रज गरुड में पु०, रसाञ्जन में नपुं० । (८) 'मन्यु' दैन्य क्रोधकतु शोक में पु० । (९) 'समय' काल सिद्धान्त शपथ आधार संविद (ज्ञानधो) क्रियाकार निर्देश संकेत भाषा में पु० (१०) 'श्वशुर्य' क्रमशः पति पत्नी देवर
और श्याल में पु० । (११) 'प्रतिश्रय' आश्रय अभ्युपगम सभा में पु० । (१२). प्रणय' विश्रम्भ प्रेम याञ्चा प्रसर निर्वाण परिचय विश्वास विप्रलम्म में पु० ।
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