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तृतोयकाण्डम्
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नानार्थवर्गः३ आकृत्यां सभिवेशे च मरणेऽप्यथ लक्ष्म च । चिह्न प्रधानयो नि बहिणौ शिखिनौ मतौ ॥१२९॥ विरोचैनोऽग्निश्चन्द्राऽकौं ग्रावा प्रस्तरपर्वतौ । प्रतियत्नस्तु संस्कारो लिप्सोपग्रह एव च ॥१३०॥ केशेना वृजिनो जन्म भूम्यामभिजनः कुले । ऋदैन रोदनाऽऽह्वाने सूनाऽधो जिहिकादिषु ॥१३॥ वेदाविप्रस्तपस्तत्वं ब्रह्मब्रह्मा प्रजापतिः। तनुस्त्वकाययोः क्रीडा व्यवसायादि देवनम् ॥१३२॥ कृत्ये निमन्त्रणे केतौ केतन भीरु वन्दयोः।
(१) लक्ष्म (न्)' चिह्न और प्रधान में नपुं० । (२) 'शिखी (न्)' वह्नि मयूर बलोवर्द शर केतुग्रह द्रुम कुक्कुट में पु०, और अन्य शिवानों में त्रि० ।
(३) 'विरोचन' अग्नि चन्द्र अर्क (सूर्य) और प्रह्लादपुत्र (बलि) में पु० । (४) 'ग्रावा (न्)' प्रस्तर (पत्थल) पर्वत में पु० । (५) प्रतियत्न' संस्कार लिप्सा उपग्रहण में पु० । (६) 'वृजिन्' केश में पु०, कल्मष में नपुं०, कुटिल में त्रि० । (७) 'अभिजन' जन्मभूमि कुल ख्याति कुलवन में पु० । (८) 'दन' रोदन में आह्वान में नपुं० । (९) 'सून' प्रसव पुष्प में नपुं० , 'सूना' पुत्री वधस्थान निहातल में स्त्री० । (१०) ब्रह्मन्' वेदतत्त्व तपस्या में नपु०, 'ब्रह्मा' वेधा ऋत्विक योगभित् में पु० । (११) 'तनु' त्वक् (त्वचा) देह में स्त्रो० (अल्प विरल कृश में त्रि० । (१२) 'देवन' कीडा व्यवसाय (व्यवहार) जिगीषा में नपुं०, अक्ष में पु० । (१३) 'केतन' कार्य ध्वज निमन्त्रण निवास में नपुं० ।
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