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तृतीय काण्डम्
३१३
नानार्थवर्गः ३
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स्याद् यज्ञियतरोः शाखा पेरिधिश्चोपसूर्यकम् । समाधिर्ध्यान नीवाक नियमेषु समर्थने ॥ १२४॥ प्रत्याशा बन्धके चित्त पीडा व्यसनयोः पुमान् । अधिष्ठाने स्थितश्चाऽऽधिः इति धान्ताः । पैत्री तु शरपक्षिणौ ॥१२५॥ ' हयनोऽचि व्रीहि वर्षों पक्ष्यश्व वाजिनः स्मृताः । " शिखरी तरु शैलैस्त साद्य श्वारोह सारथी ॥ १२६ ॥ अभिपन्नोऽपराद्धाऽभिद्रुतग्रस्त विपद्गताः । अधिष्ठानं प्रभावाऽध्यासन चक्रपुरेष्वपि ॥ १२७॥ ! तैलिनं स्तोकविरलौ वेनें कानननीरयोः । स्वश्रेष्ठेऽपि मणौ रत्नं संस्थानं स्याच्चतुष्पथे ॥ १२८ ॥
(१) 'परिधि' यज्ञिय तरु की शाखा में उपसूर्यक में पु० । (२) 'समाधि' ध्यान नीवाक नियम समर्थन और काव्य के गुणान्तर में पु० । (३) 'आधि' प्रत्याशाबन्धक चित्तपीडा व्यसन अधिष्ठान में पु० । इति धान्ताः ।
( ४ ) ' पत्री ( पत्रिन्) ' श्येन रथ शर गाधिष्ठित तरु रथिक अद्वि में पु० । (५) 'हायन' अद्व में पु० नपुं०, अर्चिष् (रश्मि ) व्रीहि (वर्ष में एक बार फलनेवाला धान्य) में पु० । ( ६ ) 'वाजिन्' अश्व बाण पक्षी में पु० । ( ७ ) 'शिखर' (रिन) तरु में पर्वत में पु० । (८) 'सादी (न्) ' अश्वारोही सारथि में पु० । (९) 'अभिपन्न' अपराद्ध अभिद्भुत ग्रस्त विपत में पु० । (१०) 'अधिष्ठान' प्रभाव अध्यासन रथाङ्ग (चक्र) पुर (नगर) में नपुं० । (११) 'तलिन' स्तोक विरल और स्वच्छ में नपुं० । (१२) 'वन' कानन नीर निवास निलय (कुलयघर) में त्रि० । (१३) 'रत्न' स्वजातिश्रेष्ठ में मणि में नपुं० । (१४) 'संस्थान' चतुष्पथ संनिवेश मृत्यु आकृति में नपुं० ।
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