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तृतीय काण्डम्
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नानार्थवर्गः ३
घण्टापथे संसरणं प्राण्युत्पादे चमूगतौ । मुक्तोज्झितोन्मूलितयोः समुद्धरणमुन्नतौ ॥७३॥
इति णान्ताः । कृतान्तौ दैव सिद्धान्त यमाsकुशलकर्मसु । प्रकारेऽपि प्रकरणे वृत्तान्तः कास्यं वार्तयोः ॥७४॥ आनंत देशभेदे स्या न्नृत्य स्थाणे जने रणे । श्लेष्मादि रस रक्तादि महाभूतानि तद्गुणाः ॥ ७५ ॥ शब्दयोनीन्द्रिये प्रस्थ विकृति धातवः स्मृताः । शैक्तिरायुधकास्वाः स्यान्मूर्ति काठिन्य काययोः ॥ ७६॥ शुद्धान्तो नृपनारीणां वेश्म कक्षान्तरोऽपि च । क्षयेऽपचिति रचायां सोति दनाऽवसानयोः ॥७७॥ विस्तारे व्रतति र्वल्यां वसति र्वास वेश्मनी ।
(१) 'संसरण' घण्टापथ प्राण्युत्पाद चमुगति में नपुं० । (२) 'समुद्धरण' भुंक्तोज्झित (वान्त में ) उन्मूलित उन्नय में नपुं० । इति वान्ताः । (३) 'कृतान्त' दैव सिद्धान्त यम अनिष्टकर्म कर्मन् में पु० । (४) 'वृतान्त' प्रकार प्रकरण कायै वार्ता में पु० । (१०) 'आनर्त' देशमेद नृत्यस्थान जनरण में पु० । (६) 'धातु ' श्लेष्मन् पित्तादि भुक्त आहार के प्रथम अवस्थारूप रस रक्तः मज्जा शुक्रादि, तद्गुण इन्के गन्धादि, महाभूत, शब्दोत्पत्ति, मूलकारण, इन्द्रिय, प्रस्थविकृति गैरिकादि में पु० । (७) 'शक्ति सामर्थ्य कासू (विकल्पना) में स्त्री० । (८) 'मूर्ति' काठिन्य काय में स्त्री० । (९) 'शुद्धान्त' राजाओं के अन्त पुर और गुप्तकक्षा (मंत्रण करने का स्थान ) भेद में पु० । (१०) 'अपचिति' पूजा और क्षय अर्थात् व्यय निष्कृति हानि में स्त्री० । (११) 'साति' दान और अवसान में स्त्री० । (१२) 'व्रतति' विस्तार और वल्ली में स्त्री० । (१३) ' वसति' वास भवन रात्रि में स्त्री० ।
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