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तृतीयकाण्डम् ३००
नानार्थवर्गः ३ अतिसूक्ष्मे च धान्यांशे 'स्थाणुः कीले हरे पुमान् । अस्त्री ध्रुवे प्रमाणं तु शास्त्रे यन्ता प्रमातृषु ॥६८॥ मर्यादा हेतु नित्येषु चैकत्वं सत्यवादिनि । कायकारण कायस्थ साधनेन्द्रिय कर्मसु ॥६९।। व्रतबन्धे नाटयगीत भेदयोः करणं यदि । वधरक्षण रक्षित गृहेषु शरणं भवेत् ॥७॥ वाच्यवद् निचितेऽशुद्ध संकीर्ण वर्णसङ्करे । पशुशृङ्गे-भ-दन्तादौ विषाणं त्रिषु न स्त्रियाम् ॥७॥ वों द्विजादा 'वरुणो वर्ण भेदादिषु त्रिषु । मौर्वी सन्ध्या सत्त्व शुक्ल द्रव्य धीषु गुणः पुमान् ॥७२॥
(१) 'स्थाणु' कील हर में पुं०, ध्रुव में पु० नपुं० । (२) 'प्रमाण' शास्त्र इयत्ता प्रमाता (तू) मर्यादा हेतु नित्य सत्यवादी (इन्) में नपुं० एकवचन है । (३) 'करण' काय कारण काय स्थ साधन इन्द्रिय कर्मन् व्रतबन्ध नाट्यभेद गीतभेद में नपुं०, शूद्रा विश के पुत्र में वानर आदि में पुं०। (१) 'शरण' वध रक्षण रक्षिता (त) गृह में नपुं० । (५) 'संकीर्ण' संकट, वर्णसंकर में नपुं०, व्याप्त अशुद्ध में वाच्यलिङ्ग । (६) 'विषाण' पशुशृङ्ग हस्तिदन्त में त्रि०, क्षोरिकाकोली अजशृङ्गी में स्त्रो०, कुष्ठनामकः ओषधि में नपुं० । (७) 'वर्ण'द्विज आदि, शुक्ल आदि, यशः कथा, गुण कथा, स्तुति में पु०, भेद रूप अक्षर विलेखन में पु० नपुं० । . (८) 'अरुण' गुणी में त्रि०, अव्यक राग अर्क सन्ध्याराग अर्क
सारथि निः शब्द कपिल कुष्ठभेद में पु०, 'अरुणा' अतिविषा श्यामा मञ्जिष्ठा त्रिवृता में स्त्री० । (९) 'गुण' मौवी सन्ध्यादि सत्त्वादि शुक्लादि द्रव्याश्रित धी त्यागादि शौर्यादि रूपादि अप्रधान सुद इन्द्रिय आवृति रज्जु में पु० ।
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