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तृतीयकाण्डम्
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नानार्थवर्गः ३. आपणे विपणिः पण्यवीथिका पण्ययो स्त्रियाम् । प्रतीची सुरयो गण्ड दूर्वायां वारुणी रिणम् ॥६३॥ निराश्रये भूवो भागे ऊपरे प्रर्वणः क्षणे । निम्नोवीं क्रम आयत्ते क्षीणे प्रगुणप्रह्वयोः ॥६४॥ - चतुष्पथेधुना तीक्ष्ण विषेऽभिमर लोहयोः । क्लीबं पुंसि यवाग्रेस्या त्तिग्माऽऽस्मत्यागिनो स्त्रिषु ॥६५॥
द्रोणा काष्ठाम्बु वाहिन्यां गवादन्यां च नीवृति । पुमान् कृपीपतौ काकेऽस्त्र्याढकादि चतुष्यपि ॥६६॥ गणः प्रमथ संघात संख्या सैन्य प्रभेदवान् । मक्षिका पिप्पली नक जीरकेषु कणा कणः ॥६७।
हिन्दी- (१) “विपणि' आपण पण्यवीथी और पण्य अर्थ में स्त्री० । (२) वारुण' प्रतोची सुरा गण्डदूर्वा अर्थ में स्त्री० । (३) 'ईरिण इरिण' निराश्रय भूभाग में ऊपर भूभाग में नपुं. । (४) 'प्रवण' क्षण निम्नोर्वीक्रम आयत्त क्षीण प्रगुण प्रह्व में त्रि०, चतुप्पथ में पु० । (५) तीक्ष्ण' विष अभिमर अर्थात् युद्धबल स्वबलसाघसलोह (अजिमुष्कक) में नपुं०, यवान पु०, तिग्म आत्मत्वागिन् में त्रि० । (६) 'द्रोणा' काष्ठम्बुवाहिनी गवादनी नीवृत् (जनपद) स्त्री०, कृपीपति (द्रोणाचार्य) में पु०, काक आढक आढकादि चतुष्टय (आढक १ द्रोण २ वारी ३ वाह ४) में 'द्रोणः' पु० नपुं० (आढकी तु तुवयां स्त्री परिमाणान्तरे त्रिषु मेदिनी) । (७) 'गण' प्रमथ आदि रुद्रगण संघ संख्या सैन्य प्रभेद में पु० । (८) 'कण' मक्षिका पिप्पली कुम्भीर जोरक में स्त्री०, अतिसूक्ष्म धान्यांश में 'कण' पु०।
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