________________
शास्त्र - दानको कथा
४१९
सेवा-पूजा करनी चाहिये । मुनिराज द्वारा अपना पूर्वभव सुनकर वृषभसेनाका वैराग्य और बढ़ गया । उसने फिर महल पर न जाकर अपने स्वामीसे क्षमा कराई और संसार की सब माया ममताका पेचीला जाल तोड़कर परलोक-सिद्धिके लिये इन्हीं गुणधर मुनि द्वारा योग दीक्षा ग्रहण कर ली। जिस प्रकार वृषभसेनाने औषधिदान देकर उसके फलसे सर्वोषधि प्राप्त की उसी तरह और बुद्धिमानों को भी उचित है कि वे जिसे जिस दानकी जरूरत समझें उसीके अनुसार सदा हर एककी व्यवस्था करते रहें । दान महान् पवित्र कार्य है और पुण्यका कारण है ।
गुणधर मुनिके द्वारा वृषभसेनाका पवित्र और प्रसिद्ध चरित्र सुनकर बहुतसे भव्यजनोंने जैनधर्मको धारण किया, जिनको जैनधर्मके नाम तकसे चिढ़ थी वे भी उससे प्रेम करने लगे । इन भव्यजनोंको तथा मुझे सती वृषभसेना पवित्र करे, हृदयमें चिरकालसे स्थानसे किये हुए राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्षा, मत्सरता आदि दुर्गुणोंको, जो आत्मप्राप्ति से दूर रखनेवाले हैं, नाश करें उनकी जगह पवित्रताकी प्रकाशमान ज्योतिको जगावे |
१११. शास्त्र - दानकी कथा
संसार-समुद्र से पार करनेवाले जिन भगवान्को नमस्कार कर सुख प्राप्तिकी कारण शास्त्र दानकी कथा लिखी जाती है ।
मैं उस भारती सरस्वतीको नमस्कार करता हूँ, जिसके प्रगटकर्त्ता जिन भगवान् हैं और जो आँखोंके आड़े आनेवाले, पदार्थोंका ज्ञान न होने देनेवाले अज्ञान -पटलको नाश करनेवाली सलाई है । भावार्थ - नेत्ररोग दूर करने के लिये जैसे सलाई द्वारा सुरमा लगाया जाता है या कोई सलाई ही ऐसी वस्तुओंकी बनी होती है जिसके द्वारा सब नेत्र रोग नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह अज्ञानरूपी रोगको नष्ट करनेके लिये सरस्वती - जिनवाणी सलाईका काम देनेवाली है । इसकी सहायतासे पदार्थोंका ज्ञान बड़े सहजमें हो जाता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org