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गुरुदत्त मुनिको कथा
२९७ सौजन्यता थी । सौन्दर्यमें भी ये अद्वितीय थे । अस्तु, पुण्यकी महिमा अपरम्पार है ।
विजयदत्त अपना राज्य गुरुदत्तको सौंप कर स्वयं मुनि हो गये और आत्महित करने लगे । राज्यकी बागडोर गुरुदत्तने अपने हाथमें लेकर बड़ी सावधानी और नीति के साथ शासन आरम्भ किया। प्रजा उनसे बहुत खुश हुई। वह अपने नये राजाको हजार-हजार साधुवाद देने लगी । दुःख किसे कहते हैं, यह बात गुरुदत्तकी प्रजा जानती ही न थी । कारण किसीको कुछ, थोड़ा भी कष्ट होता था तो गुरुदत्त फौरन ही उसकी सहायता करता । तनसे, मनसे और धनसे वह सभी के काम आता था ।
लाट देश में द्रोणीमान पर्वत के पास चन्द्रपुरी नामकी एक सुन्दर नगरी बसी हुई थी। उसके राजा थे चन्द्रकीर्ति । इनकी रानीका नाम चन्द्रलेखा था । इनके अभयमती नामकी एक पुत्री थी । गुरुदत्तने चन्द्रकीर्तिसे अभयमती के लिए प्रार्थना की कि वे अपनी कुमारीका ब्याह उसके साथ कर दें । परन्तु चन्द्रकीर्तिने उनकी इस बातसे साफ इन्कार कर दिया, वे गुरुदत्त साथ अभयमतीका ब्याह करनेको राजी न हुए। गुरुदत्तने इससे कुछ अपना अपमान हुआ समझा । चन्द्रकीर्ति पर उसे गुस्सा आया । उसने उसी समय चन्द्रपुरी पर चढ़ाई कर दी और उसे चारों ओरसे घेर लिया । कुमारी अभयमतो गुरुदत्त पर पहले हीसे मुग्ध थी और जब उसने उसके द्वारा चन्द्रपुरीका घेरा जाना सुना तो वह अपने पिताके पास आकर बोली -- पिताजी ! अपने सम्बन्ध में में आपसे कुछ कहना उचित नहीं समझती, पर मेरे संसारको सुखमय होने में कोई बाधा या विघ्न न आये, इसलिए कहना या प्रार्थना करना उचित जान पड़ता है । क्योंकि मुझे दुःख में देखना तो आप सपने में भी पसन्द नहीं करेंगे। वह प्रार्थना यह है कि आप गुरुदत्तजी के साथ ही मेरा ब्याह कर दें, इसीमें मुझे सुख होगा । उदार हृदय चन्द्रकीर्तिने अपनी पुत्रीकी बात मान ली। इसके बाद अच्छा दिन देख खूब आनन्दोत्सव के साथ उन्होंने अभयमतीका ब्याह गुरुदत्तके साथ कर दिया । इस सम्बन्धसे कुमार और कुमारी दोनों ही सुखी हुए । दोनोंकी मनचाही बात पूरी हुई ।
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ऊपर जिस द्रोणीमान पर्वतका उल्लेख हुआ है, उसमें एक बड़ा ही भयंकर सिंह रहता था । उसने सारे शहरको बहुत ही आतंकित कर रखा था । सबके प्राण सदा मुट्ठी में रहा करते थे । कौन जाने कब आकर सिंह खा ले, इस चिन्तासे सब हर समय घबराए हुए से रहते थे । इस समय
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