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आराधना कथाकोश को इन्होंने आत्महितके मार्ग पर लगाया और स्वयं भी काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेषादि आत्मशत्रुओंका प्रभुत्व नष्ट कर उन पर विजय लाभ किया। आत्मोन्नतिके मार्गमें दिन बदिन बे-रोक टोक ये बढ़ने लगे। एक दिन घूमते-फिरते ये तामलिप्तपुरीकी ओर आये। अपने संघके साथ ये पुरोमें प्रवेश करनेको ही थे कि इतने में यहाँकी चामुण्डा देवीने आकर भीतर घुसनेसे इन्हें रोका और कहा-योगिराज, जरा ठहरिए, अभी मेरी पूजाविधि हो रही है। इसलिए जब तक वह पूरी न हो जाये तब तक आप यहीं ठहरें, भीतर न जायें। देवीके इस प्रकार मना करने पर भी अपने शिष्योंके आग्रहसे वे न रुककर भोतर चले गये और पुरोके पश्चिम तरफके परकोटेके पास कोई पवित्र जगह देखकर वहीं सारे संघने ध्यान करना शरू कर दिया। अब तो देवीके क्रोधका कुछ ठिकाना न रहा। उसने अपनी मायासे कोई कबूतरके बराबर डाँस तथा मच्छर आदि खन पीनेवाले जीवोंकी सृष्टि रचकर मुनि पर घोर उपद्रव किया। विधुच्चर मुनिने इस कष्टको बड़ी शान्तिसे सह कर बारह भावनाओंके चिन्तनसे अपने आत्माको वैराग्यकी ओर खूब दृढ़ किया और अन्त में शुक्ल-ध्यानके बलसे कर्मोंका नाश कर अक्षय और अनन्त मोक्षके सुखको अपनाया। ___उन देवों, विद्याधरों, चक्रवत्तियों तथा राजों-महाराजों द्वारा, जो अपने मुकुटोंमें जड़े हुए बहुमूल्य दिव्य रत्नोंको कान्तिसे चमक रहे हैं, बड़ी भक्तिसे पूजा किये गये और केवलज्ञानसे विराजमान वे विद्यच्चर मुनि मुझे और आप भव्य-जनोंको मंगल-मोक्ष सुख दें, जिससे संसारका भटकना छूटकर शान्ति मिले।
६६.गुरुदत्त मुनिकी कथा जिनकी कृपासे केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीको प्राप्ति हो सकती है, उन पञ्च परमेष्ठी-अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार कर गुरुदत्त मुनिका पवित्र चरित लिखा जाता है।
गुरुदत्त हस्तिनापुरके धर्मात्मा राजा विजयदत्तकी रानी विजयाके पुत्र थे। बचपनसे ही इनकी प्रकृतिमें गम्भोरता, धीरता, सरलता तथा
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