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विद्युच्चरमुनिको कथा
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उपकृत हूँ । इस कृपा के लिए आप जो कुछ मुझे देना चाहते हैं वह मेरे मित्र इन कोतवाल साहबको दीजिए । राजा सुनकर और भी अधिक अचम्भे में पड़ गये । उन्होंने विद्युच्चरसे कहा- क्यों यह तेरा मित्र कैसे है ? विद्युच्चरने तब कहा - सुनिए महाराज, मैं सब आपको खुलासा सुनाता हूँ । यहाँसे दक्षिणकी ओर आभीर प्रान्त में बहनेवाली वेना नदी के किनारे पर बेनातट नामका एक शहर बसा हुआ है । उसके राजा जितशत्रु और उनकी रानी जयावती, ये मेरे माता-पिता हैं । मेरा नाम विद्युच्चर है । मेरे शहर में ही एक यमपाश नामके कोतवाल थे । उनकी स्त्री यमुना थी । ये आपके कोतवाल यमदण्ड साहब उन्हीं के पुत्र हैं । हम दोनों एक ही गुरुके पास पढ़े हुए हैं । इसलिए तभी से मेरी इनके साथ मित्रता है । विशेषता यह है कि इन्होंने तो कोतवाली सम्बन्धी शास्त्राभ्यास किया था और मैंने चौर्यशास्त्रका । यद्यपि मैंने यह विद्या केवल विनोद के लिए पढ़ी थी, तथापि एक दिन हम दोनों अपनी-अपनी चतुरताकी तारीफ कर रहे थे; तब मैंने जरा घमण्डके साथ कहा- भाई, मैं अपने फन में कितना होशियार हूँ, इसकी परीक्षा मैं इसीसे कराऊँगा कि जहाँ तुम कोतवालीके ओहदे पर नियुक्त होगे, वहीं मैं आकर चोरी करूँगा । तब इन महाशयने कहा- अच्छी बात है, मैं भी उसी जगह रहूँगा जहाँ तुम चोरी करोगे और मैं तुमसे शहरकी अच्छी तरह रक्षा करूँगा । तुम्हारे द्वारा मैं उसे कोई तरहकी हानि न पहुँचने दूँगा ।
इसके कुछ दिनों बाद मेरे पिता जितशत्रु मुझे सब राजभार दे जिनदीक्षा ले गये । मैं तब राजा हुआ । और इनके पिता यमपाश भी तभी जिनदीक्षा लेकर साधु बन गये । इनके पिता की जगह तब इन्हें मिली । पर ये मेरे डरके मारे मेरे शहरमें न रहकर यहाँ आकर आपके कोतवाल नियुक्त हुए । मैं अपनी प्रतिज्ञाके वश चोर बनकर इन्हें ढूंढ़नेको यहाँ आया । यह कहकर फिर विद्युच्चरने उनके हारके चुरानेकी सब बातें कह सुनाई और फिर यमदण्डको साथ लिए वह अपने शहर में आ गया ।
विद्युच्चरको इस घटनासे बड़ा वैराग्य हुआ । उसने राजमहल में पहुँचते ही अपने पुत्रको बुलाया और उसके साथ जिनेन्द्र भगवान्का पूजाअभिषेक किया । इसके बाद वह सब राजभार पुत्रको सौंपकर आप बहुतसे राजकुमारोंके साथ जिनदीक्षा ले मुनि बन गया ।
यहाँसे विहार कर विद्युच्चर मुनि अपने सारे संघको साथ लिए देश विदेशों में बहुत घूमे फिरे । बहुतसे बे-समझ या मोह-मायामें फँसे हुए जनों
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