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आराधना कथाकोश ऐसा करनेसे सफल न होगी। कारण सुख-सम्पत्ति, सन्तान प्राप्ति, नीरोगता, मान-मर्यादा, सद्बुद्धि आदि जितनी अच्छी बातें हैं, उन सबका कारण पुण्य है। इसलिए यदि तु पुण्य-प्राप्तिके लिए कोई उपाय करे तो अच्छा हो । मैं तुझे तेरे हितकी बात कहता हूँ कि इन यक्षादिक कुदेवोंको पूजा-मानता छोड़कर, जो कि पुण्य-बन्धका कारण नहीं है, जिनधर्मका विश्वास कर। इससे त सत्पथ पर आ जायगी और फिर तेरी आशा भी पूरी होने लगेगी। जयावतोको मुनिका उपदेश रुचा और वह अबसे जिनधर्म पर श्रद्धा करने लगी। चलते समय उसे ज्ञानी मुनिने यह भी कह दिया था कि जिसकी तुझे चाह है वह चीज तुझे सात वर्षके भीतर-भीतर अवश्य प्राप्त होगी। तू चिन्ता छोड़कर धर्मका पालन कर । मुनिका यह अन्तिम वाक्य सुनकर जयावतोको बड़ो भारी खशी हई। और क्यों न हो? जिसकी कि वर्षोंसे उसके हृदयमें भावना थी वही भावना तो अब सफल होनेको है न ! अस्तु ।
मुनिका कथन सत्य हुआ। जयावतीने धर्मके प्रसादसे पुत्र-रत्नका मुंह देख पाया । उसका नाम रक्खा गया सुकोशल । सुकोशल खूबसूरत और साथ ही तेजस्वी था।
सिद्धार्थ सेठ विषय-भोगोंको भोगते-भोगते कंटाल गये थे। उनके हृदयकी ज्ञानमयो आँखोंने उन्हें अब संसारका सच्चा स्वरूप बतला कर बहत डरा दिया था। वे चाहते तो नहीं थे कि एक मिनट भी संसारमें रहें, पर अपनी सम्पत्तिको सम्हाल लेनेवाला कोई न होनेसे पुत्र-दर्शन तक, उन्हें लाचारीसे घरमें रहना पड़ा। अब सूकोशल हो गया, इसका उन्हें बड़ा आनन्द हुआ। वे पुत्रका मुख चन्द्र देखकर और अपने सेठ पदका उसके ललाट पर तिलक कर आप श्री नयंधर मुनिराजके पास दीक्षा ले गये।
अभी बालकको जन्मते ही तो देर न हुई कि सिद्धार्थ सेठ घर-बार छोड़कर योगी हो गये। उनकी इस कठोरता पर जयावतीको बड़ा गुस्सा आया। न केवल सिद्धार्थ पर ही उसे गुस्सा आया, किन्तु नयंधर मुनि पर भी । इसलिए कि उन्हें इस समय सिद्धार्थको दीक्षा देना उचित न था; और इसी कारण मुनि मात्र पर उसको अश्रद्धा हो गई। उसने अपने घर में मुनियोंका आना-जाना तक बन्द कर दिया। बड़े दुःखकी बात है कि यह जीव मोहके वश हो धर्मको भी छोड़ बैठता है। जैसे जन्मका अन्धा हाथमें आये चिन्तामणिको खो बैठता है।
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