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आराधना कथाकोश थी; परन्तु तब भी उसका मनोरथ नहीं फला । सच तो है, कहीं कुदेवोंकी पूजा-स्तुतिसे कभी कार्य सिद्ध हुआ है क्या ? एक दिन जब वह भगवान्के दर्शन करनेको मन्दिर गई तब वहां उसने एक चारण मुनि देखे। उन्हें नमस्कार कर उसने पूछा-प्रभो, क्या मेरा मनोरथ भी कभी पूर्ण होगा? मुनिराज उसके हृदयके भावोंको जानकर बोले-पुत्री, इस समय तू जिस इच्छासे दिनरात कूदेवोंकी पूजा-मानता किया करती है, वह ठीक नहीं है। उससे लाभकी जगह उलटी हानि हो रही है । तू इस प्रकारकी पूजामानता द्वारा अपने सम्यक्त्वको नष्ट मत कर । तू विश्वास कर कि संसारमें अपने पुण्य-पापके सिवा और कोई देवी-देवता किसीको कुछ देने लेने में समर्थ नहीं । अब तक तेरे पापका उदय था, इसलिए तेरी इच्छा पूरी न हो सकी । पर अब तेरे महान् पुण्यकर्मका उदय आवेगा, जिससे तुझे एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति होगी। तू इसके लिए पुण्यके कारण पवित्र धर्मपर विश्वास कर। ____ मुनिराज द्वारा अपना भविष्य सुनकर सुभद्राको बहुत खुशी हुई । वह उन्हें नमस्कारकर घर चली गई। अबसे उसने सब कूदेवोंकी पूजा-मानता करना छोड़ दिया । वह अब जिन भगवान्के पवित्र धर्मपर विश्वास कर दान, पूजा, व्रत वगेरह करने लगी। इस दशामें दिन बड़े सुखके साथ कटने लगे। इसी तरह कुछ दिन बीतने पर मुनिराजके कहे अनुसार उसके पुत्र हुआ। उसका नाम चारुदत्त रक्खा गया। वह जैसा-जैसा बड़ा होता गया, साथमें उत्तम-उत्तम गुण भो उसे अपना स्थान बनाते गये। सच है, पुण्यवानोंको अच्छी-अच्छी सब, बातें अपने आप प्राप्त होती चली आती हैं।
चारुदत्त बचपनहीसे पढ़ने-लिखनेमें अधिक योग दिया करता था। यही कारण था कि उसे चौबीस-पच्चीस वर्षका होने पर भी किसी प्रकार. की विषय-वासना छु तक न गई थी। उसे तो दिन-रात अपनी पुस्तकोंसे प्रेम था। उन्हींके अभ्यास, विचार, मनन, चिन्तनमें वह सदा मग्न रहा करता था और इसीसे बालपनसे ही वह बहुधा करके विरक्त रहता था। उसकी इच्छा नहीं थी कि वह ब्याह कर संसारके माया-जालमें अपनेको फंसावे, पर उसके माता-पिताने उससे ब्याह करनेका बहुत आग्रह किया। उनकी आज्ञाके अनुरोधसे उसे अपने मामाकी गुणवती पुत्री मित्रवतीके साथ ब्याह करना पड़ा।
ब्याह हो गया सही, पर तब भी चारुदत्त उसका रहस्य नहीं समझ पाया । और इसीलिए उसने कभी अपनी प्रियाका मुंह तक नहीं देखा।
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