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वनकुमारको कथा तपश्चर्या द्वारा अपना आत्मकल्याण करूँ । वज्रकुमारको एक साथ संसारसे विरक्त देखकर दिवाकरदेवको बहत आश्चर्य हआ। उसने इस अभिप्रायसे, कि सोमदत्त मुनिराज वज्र कुमारको कहीं मुनि हो जानेकी आज्ञा न दे दें, उनसे वज्रकुमार उन्हींका पुत्र है, और उसोपर मेरा राज्यभार भी निर्भर है आदि सब हाल कह दिया। इसके बाद वह वज्रकुमारसे भो बोला-पुत्र, तुम यह क्या करते हो ? तप करनेका मेरा समय है या तुम्हारा ? तुम अब सब तरह योग्य हो गए, राजधानीमें जाओ और अपना कारोबार सम्हालो। अब मैं सब तरह निश्चिन्त हुआ । में आज हो दोक्षा ग्रहण करूँगा। दिवाकरदेवने उसे बहुत कुछ समझाया और दीक्षा लेनेसे रोका, पर उसने किसीकी एक न सुनी और सब वस्त्राभूषण फेंककर मुनिराजके पास दीक्षा ले ली। कन्दर्पकेसरी वज्रकुमार मुनि साधु बनकर खूब तपश्चर्या करने लगे। कठिनसे कठिन परीषह सहने लगे। वे जिनशासनरूप समुद्रके बढ़ानेवाले चन्द्रमाके समान शोभने लगे। ___ वज्रकुमारके साधु बन जानेके बादकी कथा अब लिखी जाती है। इस समय मथुराके राजा थे प्रतगन्ध । उनकी रानीका नाम था उविला । वह बड़ी धर्मात्मा थी, सती थी. विदुषी थी और सम्यग्दर्शनसे भूषित थी। उसे जिनभगवान्को पूजासे बहुत प्रेम था। वह प्रत्येक नन्दीश्वरपर्वमें आठ दिनतक खूब पूजा महोत्सव करवातो, खूब दान करतो। उससे जिनधर्मकी बहुत प्रभावना होती। सर्व साधारणपर जैनधर्मका अच्छा प्रभाव पड़ता। मथुरा हीमें एक सागरदत्त नामका सेठ था। उसको गृहिणीका नाम था समुद्रदत्ता। पूर्व पापके उदयसे उसके दरिद्रा नामकी पुत्री हुई। उसके जन्मसे माता पिताको सुख न होकर दुःख हुआ। धन सम्पत्ति सब जाती रही। माता-पिता मर गये। बेचारी दरिद्राके लिए अब अपना पेट भरना भी मुश्किल पड़ गया। अब वह दूसरोका झूठा । खा-खाकर दिन काटने लगी। सच है पापके उदयसे जोवोंको दुःख भोगना हो पड़ता है।
एक दिन दो मुनि भिक्षाके लिये मथुरा में आये । उनके नाम थे नन्दन और अभिनन्दन । उनमें नन्दन बड़े थे और अभिनन्दन छोटे । दरिद्राको एक-एक अन्नका झूठा कण खाती हुई देखकर अभिनन्दनने नन्दनसे कहा-मुनिराज, देखिये हाय ! यह बेचारो बालिका कितनी दुखो है ? केसे कष्टसे अपना जीवन बिता रहो है ! तब नन्दनमुनिने अवधिज्ञानसे विचार कर कहा-हाँ यद्यपि इस समय इसकी दशा अच्छी नहीं है,
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