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________________ पालकेसरी-पार्थिव जैन पुराणकोश : २२१ पला सम्यग्दृष्टि होते हैं तथा जघन्य पात्र वे हैं जो शीलवान् तो है परन्तु मिथ्यादृष्टि होते हैं। मपु० २०.१३९-१४६, ६३.२७३-२७५, हपु० ७.१०८-१०९ पात्रकेसरी-जिनसेन के पूर्ववर्ती एक आचार्य । महापुराण में कवि ने भट्टाकलंक और श्रीपाल के बाद इनका स्मरण किया है । मपु० १.५३ पात्रत्व-उपासकाध्ययन-सूत्र में कथित द्विज के दस अधिकारों में चतुर्थ अधिकार । गुणों का गौरव हो पात्रता है। मपु० ४०.१०५, १७३-१७५, पात्रवत्ति-मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका आदि को पड़गाहकर सत्कारपूर्वक दान-विधि के अनुसार दान देना । ऐसे दान से कीर्ति निर्मल होती है और स्वर्ग तथा देवकुरु भोगभूमि के सुख मिलते हैं। मपु० ३.२०८, ९.११२, ३८.३५.३७, पपु० ५३.१६१-१६४, १२३. १०५, वीवच० १३.२-३० पात्री–विजया के जिनमन्दिरों की प्रतिमाओं के पास रखे हुए एक सौ आठ मांगलिक उपकरणों में से एक उपकरण ।हपु० ५.३६४ पाव-(१) छः अंगुल प्रमाण विस्तार । हपु० ७.४५ (२) तालगत गान्धर्व का एक प्रकार । हपु० १९.१५१ पादपीठ-आसन-चौकी । पपु० ७.३६१ पावभाग-तालगत गान्धर्व के बाईस भेदों में इस नाम का इक्कीसवाँ भेद । हपु० १९.१५१ पादप्रधावन-पाद-प्रक्षालन । नवधा भक्तियों में तृतीय भक्ति । इसमें पात्र को पड़गाहने के पश्चात् उच्च आसन पर विराजमान करके उसके चरण धोये जाते हैं । मपु० २०.८६-८७ पाप-दुश्चरित । इसके पाँच भेद हैं-हिंसा, अनृत (झूठ), चोरी, अन्यरामारति और आरम्भ-परिग्रह । मपु०२.२३, हपु० ५८.१२७ पारशर-कुरुवंश का एक राजा । यह शन्तनु के पूर्वजों में एक था। हपु० ४५.२९ पारशरी-मगध देश के राजगृह नगर निवासी शाण्डिल्य ब्राह्मण की पत्नी। यह मरीचि के जीव स्थावर ब्राह्मण की जननी थी। मपु० ७४.८२-८४, वीवच० ३.१-३ अपरनाम पाराशरी । पारशैल-(१) राम-लक्ष्मण और वज्रजंघ के बीच हुए युद्ध में वनजंध का सहयोगी एक राजा । पपु० १०२.१५४-१५७ (२) इस नाम का देश । लवणांकुश ने यहां के नृप को पराजित किया था। पपु० १०१.८२-८६ पारा-भरतक्षेत्र के मध्यदेश की एक नदी । भरतेश की सेना यहाँ आयी थी। मपु० २९.६१, ३०.५९ पाराशरी-शाण्डिल्य ब्राह्मण की पत्नी, अपरनाम पारशरी। वीवच० ३.१-३ दे० पारशरी पारिग्राहिकी-क्रिया-साम्परायिक आस्रव की पच्चीस क्रियाओं में एक क्रिया । यह परिग्रह में प्रवृत्ति करानेवाली होती है। हपु० ५८. ६०,८० पारिणामिक-भाव-कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा से रहित स्वभावभूत भाव । हपु० ३.७९ पारितापिकी-क्रिया-श्रावक के साम्परायिक आस्रव से संबंधित पच्चीस क्रियाओं में एक क्रिया। यह स्वयं को और पर को दुःख देनेवाली होती है । हपु० ५८.६०, ६७ पारियात्र-एक पर्वत । यहाँ भरतेश की सेना कूटचित्र को पार करके आयो थी। मपु० २९.६७ पारिवाज्य-कर्यन्वयी सात क्रियाओं में तीसरी क्रिया। इसमें गार्हस्थ्य धर्म का पालन करने के पश्चात् गृहवास से विरक्त होकर निर्वाण की प्राप्ति के भाव से मुनि-दीक्षा ग्रहण की जाती है । मपु० ३८.६६-६७, ३९.१५५-१५७ इस सत्ताईस सूत्रपद हाते हैं-१. जाति २. मूर्ति ३. मूर्ति के लक्षण ४. शारीरिक सौन्दर्य ५. प्रभा ६. मण्डल ७. चक्र ८. अभिषेक ९. नाथता १०. सिंहासन ११. उपधान १२. छत्र १३. चमर १४. घोषणा १५. अशोकवृक्ष १६. निधि १७. गृहशोभा १८. अवगाहन १९. क्षेत्रज्ञ २०. आज्ञा २१. सभा २२. कीर्ति २३. वन्दनीयता २४. वाहन २५. भाषा २६. आहार और २७. सुख । ये परमेष्ठियों के गुण कहलाते हैं। भव्य पुरुष को अपने गुण आदि का ध्यान न रखते हुए और परमेष्ठियों के इन गुणों का आदर करते हुए दीक्षा ग्रहण करना चाहिए । मपु० ३९.१६२-१६६ पारिषद-वैमानिक देवों का एक वर्ग । ये देव सौधर्मेन्द्र की सभा में उपस्थित रहते हैं। इनका इन्द्र के साथ पीठमदं (मित्र) जैसा संबंध होता है और ये इन्द्रसभा के सदस्य होते हैं। मपु० १३.१७-१८, २२.२६, वीवच ६.१३१-१३२ पार्थ-युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन का मातृकुल सूचक नाम । यह शब्द अर्जुन के लिए रूढ हो गया है। हपु० ४५.१३०-१३१ दे० अर्जुन पार्थिव-(१) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३३ (२) राम का शार्दूलवाही एक योद्धा । पपु० ५८.६-७ (३) एक अस्त्र । यह धर्मास्त्र से नष्ट होता है । पपु० ७४.१०४ पापपित-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१३८ पापावग्रह-पाप का प्रतिबन्ध । मपु० २५.२२८ पापोपदेश-अनर्थदण्डवत के पाँच भेदों में प्रथम भेद । वणिक् अथवा वधक आदि को सावध कार्यों में प्रवृत्त करानेवाले पापपूर्ण वचनों का उपदेश पापोपदेश है । हपु० ५८.१४६-१४८ पारग--सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४९ पारणा-व्रत के बाद किया जानेवाला भोजन । हपु० ३३.७९ पारत-कान्यकुब्ज का राजा। साकेत के स्वामी सहस्रबाहु की रानी चित्रमति का यह पिता था। श्रीमती इसको एक बहिन थी जो शतबिन्दु को विवाही गयी थी । जमदग्नि इसका भानज था। इसका सो पुत्रियाँ थीं। मपु० ६५.५७-६०, ८१-८५ पारमेश्वरीबोक्षा-तीर्थकर आदिदेव द्वारा धारण की गयी दीक्षा । मपु० १७.२०८ Jain Education Intemational Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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