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२२२ जैन पुरानकोश
(२) जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के दस देश की कौशाम्बी नगरी का राजा । इसकी रानी सुन्दरी और पुत्र सिद्धार्थं था। इसने परमावधिज्ञान के धारी मुनिवर नामक मुनि से धर्मोपदेश सुना और वैराग्यभाव उत्पन्न होने से यह पुत्र को राज्य देकर दीक्षित हो गया । मपु० ६९.२-१०
पार्वतेय - मातंग विद्याधरों का एक निकाय । ये विद्याधर हरे वस्त्र पहनते हैं, नाना प्रकार के मुकुट और मालाओं को धारण करते हैं। तथा समवसरण में पार्वत स्तम्भ के सहारे बैठते हैं । हपु० २६.१४, २०
पार्श्वग— एक ज्योतिर्विद भविष्यवक्ता । इसने अंजना को हनुमान् के संबंध में भविष्यवाणी की थी कि इसके अच्छे योग होने से यह उत्तम पुरुष होगा और अनेक सिद्धियां इसे प्राप्त होंगी । पपु० १७. ३५९, ३७६ पार्श्वनाथ अवसर्पिणी काल के दुःषमा- सुषमा नामक चतुर्थ काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं तेईसवें तीर्थंकर । तीर्थंकर नेमिनाथ के पश्चात् तेरासी हजार सात सौ पचास वर्ष का काल बोत जाने पर ये काशी देश की वाराणसी नगरी में काश्यप गोत्र के उग्रवंशी राजा विश्वसेन की रानी ब्राह्मी (पद्मपुराण के अनुसार वामादेवी) के सोलह स्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्ण द्वितीया प्रातः वेला में विशाखा नक्षत्र में गर्भ में आये तथा पौष कृष्ण एकादशी के अनिल योग में इनका जन्म हुआ | जन्माभिषेक करने के पश्चात् सौधर्मेन्द्र ने इनका यह नाम रखा । इनकी आयु सौ वर्ष थी, वर्ण हरा था और शरीर ९ हाथ था । सोलह वर्ष की अवस्था में ये नगर के बाहर अपने नाना महीपाल के पास पहुँचे । वह पंचाग्नि तप के लिए लकड़ी फाड़ रहा था । इन्होंने उसे रोका और बताया कि लकड़ी में नागयुगल है । वह नहीं माना और क्रोध से युक्त होकर उसने वह लकड़ी काट डाली । उसमें सर्प युगल था वह कट गया। मरणासन्न सर्प को इन्होंने धर्मोपदेश दिया जिससे यह सर्पयुगल स्वर्ग में घरणेन्द्र हुआ । तीस वर्ष के कुमारकाल के पश्चात् अपने पिता के वचनों के स्मरण से ये विरक्त हुए और आत्मज्ञान होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन ये विमला नामक शिविका में बैठकर अश्ववन में पहुँचे और वहीं प्रातः वेला में तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हुए। प्रथम पारणा गुल्मखेट नगर में हुई । अश्ववन में जब ये ध्यानावस्था में थे कमठ के जीव शम्बर देव ने इन पर उपसर्ग किया। उस समय धरणेन्द्र देव और पद्मावती ने आकर उपसर्ग का निवारण किया । ये चैत्र चतुर्दशी
दिन प्रातः वेला में विशाखा नक्षत्र में केवलो हुए । उपसर्ग के निवारण के पश्चात् शम्बर देव को पश्चाताप हुआ । उसने क्षमा माँगी और धर्मश्रवण करके वह सम्यक्त्वी हो गया । सात अन्य मिध्यात्वी और संयमी हुए थे। इनके संघ में स्वयंभू आदि दस गणधर सोल् हवार मुनि सुलोचना बादि छत्तीह हजार आर्यिकाएं थीं। उनहत्तर वर्ष सात मास विहार करके अन्त में एक मास की आयु शेष रहने पर सम्मेदाचल पर छत्तीस मुनियों के साथ इन्होंने प्रतिमायोग धारण
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पार्वतेय - पिंगल
किया और श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रातः वेला में विशाखा नक्षत्र में इनका निर्वाण हुआ । मपु० २.१३२-१३४, ७३.७४-१५७, ० ५.२१६, २०१४-१२२ ० १.२५ ६०.१५५-२०४, २४१-०४९, पापु० २५.१, बीच० १.२३ १८.१०१-१०८ पूर्वभवों के न भय में ये विश्वमुति ब्राह्मण के मरभूति नामक पुत्र थे, इस भव में कमठ इनका भाई था। कमठ के जीव के द्वारा आगे के भवों में इन पर अनेक उपसर्ग किये गये । मरुभूमि की पर्याय के पश्चात् से वज्रघोष नामक हाथी हुए। फिर सहस्रार स्वर्ग में देव हुए। इसके पश्चात् ये क्रम से रश्मिवेग विद्याधर, अच्युत स्वर्गं में देव, वज्रनाभि चक्रवर्ती, मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र, राजा आनन्द और अच्युत स्वर्ग के प्राणत विमान में इन्द्र हुए। वहाँ से च्युत होकर वर्तमान भव में ये तेईसवें तीर्थङ्कर हुए । मपु० ७३.७-६८, १०९ पार्श्वस्थ - मुनियों का एक भेद । दर्शन, ज्ञान और चारित्र के ये निकट तो रहते हैं पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के ज्ञाता होते हुए भी इनका आचरण तन्मय नहीं होता। ये केवल मुनियों की क्रियाएँ करते रहते हैं । मपु० ७६.१९१-१९२
पालक - मगध का एक राजा । इसने मगध पर साठ वर्ष तक शासन किया था । हपु० ६०.४८७-४८८
पावकस्यन्दन - इन्द्र विद्याधर के पक्ष का एक देव । पपु० १२.२ पावन - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२ पावा- भगवान् महावीर की निवास भूमि । अपरनाथ पावानगरी । इसे
पावापुर भी कहते हैं। यह नगर मनोहर नामक वन में सरोवरों के मध्य था । मपु० ७६.३८, ५०८-५१२, पपु० २०.६०, हपु० ६६. १५-१९
पाश - राजा धृतराष्ट्र तथा उसको रानी गान्धारी का पुत्र । पापु० ८. १९९
पाखण्ड मौथ --- पाखण्डमूढता । पंचाग्नि के मध्य दुस्सह तप करना आदि मूढ़ताए । मपु० ७४.४८८-४९०
पिंगल - (१) चक्रवर्ती की नौ निधियों में दिव्याभरण उत्पन्न करनेवालो एक निधि । मपु० ३७.८०, हपु० ११.१२२
(२) वसुदेव तथा उसकी रानी प्रभावती का पुत्र । हपु० ४८-६३ (३) एक नृप । पपु० ९६.२९-५०
(४) चक्रपुर नगर के राजा चक्रध्वज के पुरोहित धूमकेश का पुत्र । अन्त में विरक्त हो इसने दिगम्बर दीक्षा धारण की थी। मरकर यह महाकाल नामक असुर हुआ । इसने पूर्व विरोधवश भामण्डल को मारने के लिए उसके उत्पन्न होने की प्रतीक्षा की थी किन्तु भामण्डल के उत्पन्न होते ही इसके विचार बदल गये थे । अतः यह भामण्डल को कुण्डल पहनाकर तथा उसे पर्णलध्वी विद्या देकर सुखकर स्थान में छोड़ गया था । पपु० २६.४-४४, ११३ ११९
पिंग - भरतेश को एक निधि । इससे आजीविका सम्बन्धी चिन्ताओं से मुक्ति मिल जाती है मपु० ३७.७३
पिंगल - ( १ ) एक नगर रक्षक । यह पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुरदेव का जीव था । मपु० ४६. ३५६
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