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२२० : जैन पुराणकोश
पाण्डित्य-पात्र
रचना शाफवट नगर में की गयी थी। इस पुराण में पच्चीस पर्व तथा ५३१० श्लोक हैं । यह वि०सं० १६०८ में भाद्रपद की द्वितीया
तिथि में पूर्ण हुआ था। पापु० २५.१८७-१८८ पाणित्य-संसारोद्धारक ज्ञान । यह मानवों को दुराचरण, दुरभिमान
तथा पाप की कारणभूत क्रियाओं से दूर रखता है । मपु० ८.८६,
वोवच० ८.४७ पाण्डु-(१) ग्यारह अंग के ज्ञाता पाँच आचार्यों में तीसरे आचार्य । वे महावीर निर्वाण के पश्चात् हुए थे । मपु० २.१४६-१४७, ७६.५२०- ५२५, हपु० १.६४, वीवच० १.४१-४९
(२) पाण्डुक वन का एक भवन । हपु० ५.३२२
(३) हस्तिनापुर के निवासी कौरववंशी भीष्म के सौतेले भाई व्यास और उसकी रानी सुभद्रा का पुत्र । धृतराष्ट्र इसके अग्रज और विदुर अनुज थे। हपु० ४५.३४, पापु० ७.११७ इसे वज़माली विद्याधर से इच्छित रूप देनेवाली एक अंगूठी प्राप्त थी। कर्ण इसकी अविवाहित अवस्था का पुत्र था। इसके पश्चात् इसने कुन्ती के साथ विधिवत् विवाह कर लिया था। कुन्ती की बहिन माद्री भी इसी से विवाही गयी थी। विवाह के पश्चात् इसके कुन्ती से तीन पुत्र हुए-युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तथा माद्री से दो पुत्र हुएनकुल और सहदेव । ये पाँचों भाई पाण्डव कहे जाते थे। मपु० ७०.१०१-११६, हपु० ४५.१-२, ३४, पापु० ७.१६४-१६६, २०४२१३, २६१-२६४, ८.६४-६६, १४२-१७५, ९.१० सुत्रत योगी से इसने धर्मोपदेश सुना । उनसे अपनी आयु तेरह दिन की शेष जानकर इसने पुत्रों को राज्य सौंप दिया तथा उन्हें धृतराष्ट्र के अधीन कर वह संयमी हो गया। अन्त में आत्मस्वरूप में लीन होते हुए इसने समाधिमरण किया और सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। पापु० ९.७०.
१३८ पाण्डक-(१) सदैव पुष्पित वृक्षों से युक्त मेरु पर्वत का एक वन ।
तीर्थंकरों के जन्माभिषेक के लिए पाण्डु कशिला इसी बन में बनी हुई है। यहां जिन प्रतिमाओं की वन्दना के लिए देव आते है। मपु० ५.१८३, पपु० १२.८४-८५, हपु० ८.३८, ४४, १९०, पापु० २. १२३ दे० पाण्डुकवन
(२) पाण्डुक वन का एक भाग । हपु० ५.३०८-३०९
(३) विजया पर्वत की उत्तरश्रेणी का बाईसा नगर । हप० २२.८८
(४) चक्रवर्ती की नौ निधियों में धान्य तथा रसों की उत्पादिनी निधि । यह भरतेश को प्राप्त थी। मपु० ३७.७३, ७८, हपु०
पाण्डुकम्बला-सुमेरु पर्वत के शिखर पर स्थित पाण्डुक वन की एक शिला । यह रजतमयी, अद्धचन्द्राकार, आठ योजन ऊँची, सौ योजन योजन लम्बी और पचास योजन चौड़ी है। इसकी लम्बाई दक्षिणोत्तर दिशा में है। इस शिला पर पाँच सौ धनुष ऊँचे तथा इतने ही चौड़े रत्नमयी तीन पूर्वमुखी सिंहासन बने हुए हैं। इनमें दक्षिण सिंहासन सौधर्मेन्द्र का, उत्तर सिंहासन जिनेन्द्र देव का होता है । जम्बूद्वीप में उत्पन्न हुए तीर्थंकरों का जन्माभिषेक इसी शिला पर किया जाता है । पपु० ३.१७५-१७६, हपु० ५.३४७-३५२ पाण्डुकवन-सुमेरु पर्वत के चार वनों में एक वन। यह सौमनस वन से
छत्तीस हजार योजन ऊपर स्थित है। यह सघन वृक्ष समूहों से युक्त है। इसमें चार उत्तुग चैत्यालय, पाण्डुकशिला और सिंहासनों की रचना है । मध्य में चालीस योजन ऊँची स्वर्ग के अधोभाग में स्थित एवं स्थिर उत्तम चूलिका है। जब जिनेन्द्र का इस पर अभिषेक होता है तो अभिषेक-जल से यह क्षीरसागर सा लगता है। वीवच०
८.११५-११७, ९.२५, दे० पाण्डुक-१ पाण्डुकशिला-पाण्डुक वन में स्थित चार शिलाओं में एक सुवर्णमयी
शिला। यह पाण्डुक वन के पूर्व और उत्तर दिशा के बीच (ईशान) में स्थित, सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी और आठ योजन ऊँची अर्द्धचन्द्राकार है । इसमें सिंहासन और मंगल द्रव्य की रचनाएँ भी हैं। मपु० १३.८२-८४, ८८-९३, हपु० ५.३४७-३४८, ३४.४४, पापु० २.१२३, वीवच० ८.११८-१२२ । पाण्डका-सुमेरु पर्वत के पाण्डुकवन में स्थित शिला। हपु० २.४१ दे०
पाण्डुशिला पाण्डकी-एक विद्या। नमि और विन मि ने लोगों को अनेक विद्याएँ
दी। उनमें से एक यह है। इस विद्या से पाण्डुकेय विद्याधर सिद्ध
हुए थे। हपु० २२.८० पाण्डुकेय-पाण्डु की विद्या से सम्बद्ध विद्याधर । हपु० २२.८० पाण्डुर-(१) क्षीरवर द्वीप का रक्षक एक देव । हपु० ५.६४१
(२) कुण्डलवर द्वीप में स्थित कुण्डलगिरि के हिमवत् नामक कट का निवासी देव । हपु० ५.६८६-६९४ पाण्डयकवाटक-मलयगिरि पर स्थित पर्वत । इस पर किन्नर देवियों
का आवागमन रहता है । मपु० २९.८९, ३०.२६ पाता-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२ पाताल-पृथिवी का अधोभाग। यह दस प्रकार के भवनवासी देवों की
निवासभूमि है । हपु० ४.६२-६५ पातालपुण्डरीक-ध्वजाओं और रत्नमयी तोरणों से युक्त वरुण का
नगर । पपु० १९.३७ पातालस्थिर-राजा स्तिमितसागर का पुत्र । हपु० ४८.४६ दे० ऊर्मिमान पात्र-मोक्षमार्ग के पथिक तथा भव्य जीवों के हितोपदेशी मुनि । ये
उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद से तीन प्रकार के होते है। इनमें उत्तम पात्र वे हैं जो व्रतशील आदि से सहित रत्नत्रय के धारक होते है, मध्यम वे हैं जो व्रतश्शील आदि से यद्यपि रहित होते हैं किन्तु
(५) राजगृह की पाँच पहाड़ियों में एक पहाड़ी। यह आकार में गोल है तथा पूर्व और उत्तर दिशा के अन्तराल में सुशोभित है। हपु० ३.५५
(६) पाण्डुक स्तम्भ के पास बैठनेवाले विद्याधर । हपु० २६.१७
(७) कुण्डलगिरि के महेन्द्रकूट का निवासी एक देव । हपु० ५.६९४
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