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२१८ जैन पुराणको :
पलाशद्वीप -- एक द्वीप | राजा महाबल का पलाशनगर इसी द्वीप में स्थित था । मपु० ७५.९७
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पत्य -- व्यवहार काल का एक भेद । एक योजन लम्बे चौड़े और गहरे गर्त को नवजात शिशु भेड़ के बालों के अग्रभाग से ठीक-ठीक कर भरने के उपरान्त सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक रोमखण्ड निकालते हुए रिक्त करने में जितना समय लगे वह पल्य है । इतने काल को असंख्यात वर्ष भी कहते हैं । मपु० ३.५३, पपु० २०.७४-७६, हपु०
३.१२४
पत्यंक - एक आसन इस आसन में अंक में बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रहती है। दोनों हाथों की हथेलियाँ ऊपर की ओर होती हैं। आंखों को न तो अधिक खोला जाता है न बिलकुल बन्द किया जाता है । दृष्टि नासाग्र होती है । मुख बन्द और शरीर सम, सरल तथा निश्चल होता है। यह आसन धर्मध्यान के लिए सुखकर होता है । मपु० २१.६०-६२, ७२, ३४.१८८ पल्लव-वृषभदेव के समय में इन्द्र द्वारा निर्मित देश । यह भरतक्षेत्र के दक्षिण में स्थित है। यहाँ तीर्थंकर नेमिनाथ ने विहार किया था । मपु० १६.१४१-१४८, १५५, ७२.१९६, पपु० १७.२१३, हपु० ६१.४२-४३ पापु० २३.३३
पल्लव – कुशस्थल नगर का निवासी एक ब्राह्मण । यह इन्धक का भाई था। मुनियों को आहार देने के प्रभाव से यह मरकर मध्यम भोगभूमि के हरिक्षेत्र में आर्य हुआ और वहाँ पल्य की आयु भोगकर देव हुआ । पपु० ५९.६-११
पल्ली - एक छोटा गाँव । दक्षिण में छोटे-छोटे गाँवों को पल्ली कहते हैं । कृत्याकृत्य के विवेक रहित म्लेच्छ (भील) पल्लियों में निवास करते हैं । पपु० ९९.६९
'पवनकुमार — देवों की एक जाति । ये शीतल, मन्द और सुगन्धित वायु का संचालन करते हुए मन्द मन्द गति से चलते हैं । मपु० १३.२०९
पवनगिरि - विजयार्थ पर्वत की उत्तरणी के हरिपुर नगर का रक्षक विद्यावर यह और इसकी पत्नी मुगावती सुमुख के पूर्वभव में उसके पिता और माता थे । हपु० १५.२३
पवनंजय - ( १ ) तीर्थंकर अरनाथ का इस नाम का अश्व । पापु० ७.२३
(२) भरत चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक रत्न । यह रत्न उनका अश्व था । मपु० ३७.८३-८४, १७९
(३) विजय पर्वत को दक्षिणश्रेणी में स्थित आदित्यपुर के राजा प्रह्लाद और रानी केतुमती का पुत्र, अपर नाम वायुगति । इसका विवाह महेंद्रगिरि के राजा महेन्द्र और रानी हृदयवेगा की पुष अंजनासुन्दरी से हुआ था। इसने अंजना की सखी मिशी को
अंजना से विद्युत्प्रभ की प्रशंसा करते हुए सुना था । इस घटना से कुपित होकर इसने विवाह के पश्चात् अंजना के साथ समागम न करने का निश्चय किया था। रावण का वरुण के साथ विरोध उत्पन्न हो जाने से रावण ने अपनी सहायता के लिए इसके पिता
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प्रह्लाद को बुलवाया था। इसने रावण के पास जाना अपना कर्त्तव्य समझकर पिता से इस कार्य की स्वीकृति प्राप्त की और यह वहाँ गया। जाते समय इसने अंजना को देखा था । यह अंजना पर इस समय भी कुपित ही था। रास्ते में इसे क्रौंच पक्षी की विरह व्यथा देखने से अंजना का बाईस वर्ष का वियोग स्मरण हो आया और यह अपने किये पर बहुत पछताया। यह गुप्त रूप से रात्रि में अंजना से मिला। गर्भ की प्रतीति के लिए इसने अंजना को स्व-नाम से अंकित कड़ा दे दिया। यह कड़ा अंजना ने अपनी सास को भी दिखाया किन्तु सास केतुमती ने अंजना को कुल कहकर घर से निकाल दिया। पिता ने भी अंजना को आश्रय नहीं दिया। परिणामस्वरूप अंजना ने वन में ही एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम हनुमान् रखा गया था। इसने रावण के पास पहुँचकर उसकी आज्ञा से वरुण से युद्ध किया और उसे पकड़कर उसकी रावण से सन्धि करा दी । और खरदूषण को भी मुक्त कराया था। यह सब करने के पश्चात् घर आने पर अंजना से भेंट न हो सकने से यह बहुत दुखी हुआ । शोक से व्याकुल होकर इसने अंजना के अभाव में वन में ही मर जाने का निश्चय किया था किन्तु प्रतिसूर्य ने समय पर अंजना पर घटित घटना सुनाकर इसे अंजना से मिला दिया। अपनी पत्नी और पुत्र को पाकर यह अति आनन्दित हुआ । पपु० १५.६ - २१७, १६. ५९-२३७, १७.१०-४०३, १८.२ ११, ५४, १२७-१२९ पवनवेग - (१) केवली मुनि मुनि अजितसेन को भी इन्हीं के साथ केवलज्ञान हुआ था । वायुवेग की पुत्री शान्तिमती इनके केवलज्ञान के समय मौजूद थी । मपु० ६३.११४
(२) एक विद्याधर । इसने पटरानी लक्ष्मणा की प्राप्ति में कृष्ण की सहायता की थी । मपु० ७१.४१०-४१३
(३) भरतक्षेत्र के विजयार्ध पर्वत पर स्थित शिबंकर नगर का विद्याधरों का स्वामी । इसकी रानी सुवेगा से मनोवेग उत्पन्न हुआ था । मपु० ७५.१६३-१६५
(४) पवनंजय का अपर नाम । पपु० १०२.१६७ दे० पवनंजय (५) विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के मेघपुर नगर का राजा । मनोहरी इसकी रानी थी। राजा सुमुख की रानी मनोरमा इसी नृप की पुत्री थी । मपु० ७१.३६९, हपु० १५.२५-२७
(६) गुणमित्र का जीव एक कबूतर । यह अगले भव में जीवन्धर का छोटा भाई नन्दादय हुआ । मपु० ७५.४५७, ४७४ पवनवेगा - किन्नरगीत नगर के राजा अशनिवेग की रानी । यह शाल्मलिदत्ता की जननी थी । मपु० ७०.२५४-२५५
पवि - राजा मृगारिदमन के पश्चात् हुआ लंका का एक राक्षसवंशी
राजा । यह मायावी, पराक्रमी और विद्याबल से युक्त था । पपु० ५.३८७, ३९४, ३९९-४००
पवित्र - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५.१४२ पश्चिम मेघवाहन के पूर्वभव का जीव यह कौशाम्बी नगरी के एक दरिद्र कुल में उत्पन्न हुआ था । प्रथम इसका सहोदर था । यह भवदत्त मुनि से दीक्षित होकर क्षुल्लक हो गया था तथा मरकर
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