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जैन पुराणकोश : २१७
परिहारविशुद्धि-पलाशकूट परिहारविशुद्धि-साधु के पाँच प्रकार के चारित्रों में एक चारित्र । इससे
जीव-हिंसा आदि के परिहार से आत्मा की विशिष्ट शुद्धि होती है ।
हपु० ६४.१७ परोक्षित-अभिमन्यु और उत्तरा का पुत्र । कृष्ण ने इसे अभिमन्यु के
पश्चात् पाण्डवों के राज्य का अधिकारी बनाया था। पापु० २२.
३३-३४ परोषह-सहनशक्ति की प्रबलता से सही जानेवाली एवं मोक्षमार्ग में
आने वाली बाधाएँ । इन्हीं के कारण सम्यक्चारित्र को पाकर भी तपस्वी भ्रष्ट हो जाते हैं । ये बाधायें बाईस होती हैं । वे है-क्षुधा, पिपासा (तृषा) शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य, अरति, स्त्री, चर्या, शय्या, निषद्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, अदर्शन, रोग, तृणस्पर्श, प्रज्ञा, अज्ञान, मल और सत्कार-पुरस्कार । मार्ग से च्युत न होने तथा कर्मों की निर्जरा हेतु इनको सहन किया जाता है। इनकी विजय पर ही महात्माओं की सिद्धि आश्रित होती है। इनकी विजय के लिए अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन किया जाता है। मपु० ५. २४३-२४४, ११.१००-१०२, ३६.११६, १२८, ४२.१२६-१२७,
पपु० २.१८४, २२.१६९ परोक्ष-प्रमाण का दूसरा भेद । मति और श्रु त ज्ञान से प्राप्त ज्ञान परोक्ष प्रमाण कहलाता है। इससे हेय पदार्थ को छोड़ने और उपादेय को ग्रहण करने की बुद्धि उत्पन्न होती है। मपु० २.६१, हपु० १०.
१४४-१४५, १५५ पर्णलध्वी-एक विद्या । इससे पत्तों के समान शरीर हल्का और छोटा
बनाया जाता है। यह विद्या आकाश से नीचे इच्छित स्थान पर उतरने में सहायक होती है। यह विद्या वसुदेव और भामण्डल को प्राप्त थी। श्रीपाल इसी विद्या के द्वारा रत्नावर्त पर्वत पर गये थे। मपु० ४७.२१-२२, ६२.३९८, ७०.२५८-२५९ पपु० २६.१२९ हपु०
१९.११३, पापु० ११.२४ पीत- जीव की एक अवस्था । इसमें उसकी सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण होती हैं । मपु० १०.६५, १७.२४
(२) पर्याप्ति की अवस्था को प्राप्त जीव । पपु० १०५.१४५ ।। पर्याप्ति-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन की
शक्तियों की पूर्णता । यह नामकर्म का एक भेद है । हपु० १८.८३,
५६.१०४, पापु० २२.७३ । पर्याय-(१) द्रव्य में प्रति समय होनेवाला गुणों का परिणमन । मपु० ३.५-८
(२) ध तज्ञान के बीस भेदों में प्रथम भेद । यह ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीवों के होता है और श्रुतज्ञानावरण पर
होनेवाले आवरण से रहित होता है । हपु० १०.१२,१६ पर्यायसमास-श्रु तज्ञान के बीस भेदों में दूसरा भेद । श्रु तज्ञान का
आवरण होने पर भी प्रकट रहनेवाला पर्याय-श्रुतज्ञान जब ज्ञान के अनन्तवें भाग के साथ मिल जाता है तब वह ज्ञान इस नाम से सम्बोधित किया जाता है। पर्याय-ज्ञान के ऊपर संख्यातगुणवृद्धि,
असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि के क्रम से वृद्धि होते-होते जब अक्षर-ज्ञान की पूर्णता होती है तब पर्यायसमास का ज्ञान
होता है। हपु० १०.१२-१३, १९-२१ पर्यायाथिक-नय के दो भेदों में दूसरा भेद। इसमें द्रव्य से अभिन्न पर्याय विशेष का मुख्य रूप से कथन किया जाता है। यह श्रुतज्ञान
का एक भेद है । हपु० १०.१२ पर्व-(१) पर्वाग प्रमाणकाल में चौरासी लाख का गुणा करने से उप
लब्ध संख्या प्रमाण काल । यह संख्या का भी एक भेद है। मपु० ३. १४७, २१९
(२) आष्टाह्निक जिन-पूजा । हपु० १८.९९ पर्वत-स्वस्तिकावती नगर के निवासी ब्राह्मण क्षीरकदम्बक अध्यापक
का पुत्र । इसी नगर के राजा विश्वावसु और उसकी रानी श्रीमती का पुत्र राजकुमार वसु इसका सहपाठी था। इसकी जननी स्वस्तिमती थी। पद्मपुराण में राजा वसु को विनीता नगरी के राजा ययाति और उसकी रानी सुरकान्ता का पुत्र बताया गया है। नारद नामक छात्र भी इन्हीं के गुरु के पास इन दोनों के साथ पढ़ता था। नारद के साथ इसका "अज" शब्द के अर्थ में विवाद हो गया था। यह अज का अर्थ बकरा पशु बताता था जबकि नारद अज का अर्थ-वह धान्य जो अंकुरोत्पत्ति में असमर्थ हो, करता था । अपने पक्ष में राजा से निर्णय प्राप्त कर लेने के कारण यह लोक में निन्दित हुआ तथा कुतप के कारण मरकर राक्षस हुआ। राक्षस होकर पृथिवी पर इसने हिंसापूर्ण यज्ञों का प्रचार किया था। मपु० ६७.२५६-४५५, पपु०
११.१३-१५, ४२-१०५ हपु० १७.३८, ६४, १५७-१६० पर्वतक-गन्धावती नदी के किनारे गन्धमादन पर्वत पर उत्पन्न भील ।
यह वल्लरी का पति था। धर्मपूर्वक मरण करके यह विजयाध पर्वत की अलका नगरी में महाबल विद्याधर का हरिवाहन नामक पुत्र हुआ
था। हपु० ६०.१६-१८ पर्वांग-पूर्वप्रमाणकाल में चौरासी का गुणा करने से प्राप्त संख्या-प्रमित
काल । मपु० ३.२१९-२२० पर्वोपवास-पर्व के दिनों में उपवास का नियम लेकर स्थिर चित्त से
जिनमन्दिर में रहना । इन दिनों में सामायिक आदि से आत्म-शुद्धि
की जाती है । मपु० ४१.११२ पलालपर्वत-धातकीखण्ड के पूर्व मेरु से पश्चिम दिशा की ओर स्थित विदेहक्षेत्र के गन्धिला देश का एक ग्राम । यहाँ ललितांग देव की महादेवी स्वयंप्रभा ने अपने पूर्वभव में धनश्री के रूप में जन्म लिया
था। मपु० ६.१२६-१२७, १३४-१३५ पलाशकूट-(१) कुरुदेश का एक ग्राम । यहाँ वसुदेव ने अपने पूर्वभव में नन्दी के रूप में जन्म लिया था। मपु० ७०.२००
(२) भद्रशाल वन के कूटों में एक कूट। यह सीतोदा नदी के उत्तरी तट पर मेरु की पश्चिम दिशा में स्थित है। यहाँ दिग्गजेन्द्र देव रहते हैं । हपु० ५.२०७-२०९
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