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१६८ : जैन पुराणकोश
दुग्रह-दुर्योधन
जिनदेव के व्रती होने पर जिनदेव के भाई जिनदत्त से इसका विवाह किया किन्तु इसकी देह से उत्पन्न दुर्गन्ध को न सह सका और वह भी कहीं अन्यत्र चला गया। इसके पश्चात् माँ की शिक्षा के अनुसार इसने संयम धारण कर लिया। तीव्र तप तपती और परीषह सहती हुई यह विहार करने लगी । एक दिन इसने वसन्त सेना नामक वेश्या को जार पुरुषों के साथ वन में देखकर प्रथम तो इसने वेश्या होने का निदान किया किन्तु बाद में इसने स्वयं को धिक्कारा और अपने संचित दुष्कर्मों के नाश की प्रार्थना की। आयु की समाप्ति पर प्राण त्याग कर यह अच्युत स्वर्ग में देवी हुई। पापु० २४.२४-४६,
६४-७१ दुर्गह-भानुरक्ष के पुत्रों द्वारा बसाया गया एक नगर । यहाँ राक्षस
रहते थे । पपु० ५.३७३-३७४ दुर्जय-(१) जयन्तगिरि पर वर्तमान एक वन । यहाँ प्रद्युम्न ने विद्या___धर वायु की पुत्री रति को प्राप्त किया था । हपु० ४७.४३
(२) जरासन्ध का पुत्र । मपु० ७१.७६-८० हपु० ५२.३७ दुर्दर-भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में मलयगिरि के निकट स्थित एक पर्वत । ___ मपु० २९.८८-८९ दुर्वर्श-राजा पूरण का तीसरा पुत्र । यह दुष्पूर और दुमुख का अनुज ___ तथा दुर्धर का अग्रज था । हपु० ४८.५१ दुर्धर-(१) विजया की उत्तरश्रेणी के साठ नगरों में वैभव सम्पन्न एक सुन्दर नगर । मपु० १९.८५, ८७ ।। (२) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३१ (३) राजा उग्रसेन का पुत्र । हपु० ४८.३९
(४) राजा पूरण का पुत्र । हपु० ४८.५१ दे० दुदंर्श दुर्धर्षण-राजा धृतराष्ट्र तथा रानी गान्धारी का तीसरा पुत्र । यह भी
जरासन्ध का एक पक्षधर नृप था । मपु० ७०.११७-११८, ७१.७६
७९ पापु०८.१९३ दुर्ध्यान-आर्त और रौद्र । ये दोनों ध्यान अप्रस्त और हेय होते हैं।
मपु० २१.२७-२९ दुनर्खा-खरदूषण की पत्नी । यह विद्याधर रावण की बहिन और शम्बूक तथा सुन्द की जननी थी। इसके पुत्र शम्बक ने जिस सूर्यहास-खड्ग की प्राप्ति के लिए उद्यम किया था, वह शम्बूक को प्राप्त न होकर लक्ष्मण को प्राप्त हुआ था। इसी खड्व के परीक्षण में इसका पुत्र शम्बूक द्वारा मारा गया था। पुत्र-मरण के कारण विलाप करते हुए एकाएक इसे राम-लक्ष्मण दिखायी दिये जिन्हें देख कामासक्त होकर इसने अपना रूप कन्या का बना लिया । राम को ठगने के लिए अपने माता-पिता को बताकर लज्जा रहित वचन कहे किन्तु इसका मनोरथ पूर्ण न हो सका । मनोकामना सिद्ध न होने के कारण इसने अपने पति खरदूषण को युद्ध के लिए प्रेरित किया। खरदूषण ने लक्ष्मण के साथ घनघोर युद्ध किया भी किन्तु लक्ष्मण द्वारा चलाये गये सूर्यहास-खड्ग के द्वारा वह मारा गया। पपु० ४३.३८-४६, ४५.२६-२८, ६१, ८८-१११, अन्त में यह शशिकान्ता आर्यिका के पास साध्वी हो गयी । इसने घोर
तपस्या करके रत्नत्रय की प्राप्ति की । इसी का दूसरा नाम चन्द्रनखा
था। पपु० ४३.११३, ७८.९५ दुबुद्धि-राम का पक्षधर एक विद्याधर । इसने रावण के पक्षधर
स्वयम्भू से युद्ध किया था। पपु० ५८.५, ६२.३५ दुर्भग-नाम कर्म का एक भेद । इस कर्म के उदय से मनुष्य दुर्भागी और
लोकनिन्दित होते हैं। हपु० १८.१२८, वीवच० १७.१२७-१२८ दुर्मद-राजा धृतराष्ट्र तथा रानी गान्धारो का पच्चीसवाँ पुत्र । पापु०
८.१९६ दुर्मर्षण-(१) अर्ककीर्ति का एक किंकर । यह एक पुष्ट पुरुष था। इसी
ने जयकुमार के विरोध में राजाओं को उत्तेजित किया था। मपु० ४४.१-४, पापु० ३.६४ ।
(२) मगध देश के वृद्ध नगर का निवासी एक गृहस्थ । यह नागश्री का पिता था। मपु० ७६.१५२-१५७
(३) राजा धृतराष्ट्र तथा रानी गान्धारी का चतुर्थ पुत्र । यह जरासन्ध का पक्षधर नृप था तथा द्रौपदी के स्वयंवर में भी सम्मिलित हुआ था। मपु० ७०.११७-११८, ७१.७६-७९ पापु० ८.१९३, १५.८४
(४) राम का पक्षधर एक नृप । इसने रावण के योद्धा घटोदर के साथ युद्ध किया था । पपु० ५४.५६,६२.३५ दुर्मुख-(१) रावण का पक्षधर एक विद्याधर । यह सीता के स्वयंवर में भी सम्मिलित हुआ था । मपु० ६८.४३१, पपु० २८.२१४
(२) जरासन्ध का पुत्र । हपु० ५२.३७ ।। (३) पूरण का पुत्र । हपु० ४८.५१ दे० दुर्दर्श
(४) वसुदेव और अवन्ती का पुत्र, सुमुख का अनुज और महारथ का अग्रज । हपु० ४८.६४, यह अर्धरथ राजा था। इसे वसुदेव ने कृष्ण-जरासन्ध युद्ध में कृष्ण का पृष्ठरक्षक बनाया था। हपु० ४८.
६४, ५०.८३,११५ दुर्योधन-राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का ज्येष्ठ और दुःशासन
आदि सौ भाइयों का अग्रज । इसके साथ युद्ध करना कठिन होने के कारण यह नाम इसे स्वजनों से प्राप्त हुआ था । हस्तिनापुर का यह राजा था । इसने कृष्ण के पास यह कहकर दूत भेजा था कि रुक्मिणी और सत्यभामा रानियों में जिसके पहले पुत्र होगा वह यदि मेरी पुत्री हुई तो उसका पति होगा। मपु० ७०.११७-११८, पु० ४३.२०-२१, पापु० ८.१८७ भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य इसके शिक्षा और धनुर्विद्या प्रदातागुरु थे। पाण्डवों का यह महावैरी था । इसने भीम को मारने हेतु सर्प के द्वारा दंश कराया था। तीव्र विष भी भीम के लिए अमृत हो गया था। यह अपने उद्देश्य में असफल रहा। पाण्डवों को मारने के लिए इसने लाक्षागृह बनवाया था। इसे जलाने से चाण्डालों ने निषेध किया तो इसने ब्राह्मणों से उसे जलवाया । पाण्डव सुरंग से निकलकर बाहर चले गये थे। इसमें भी यह असफल रहा और इसे बड़ी अपकीर्ति मिली। मपु० ७२.२०१-२०३, पापु०८.२०८-२०९, १०.११५-११७, १२.१२२-१६८. युद्ध में इसे चित्रांग गन्धर्व ने नागपाश में बाँध लिया था। युधिष्ठिर के कहने
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