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________________ मामा-या " कुलकर उत्पन्न होंगे, उनमें प्रथम कुलकर का शरीर चार हाथ प्रमाण होगा | कुलकर क्रमशः ये होंगे - कनक, कनकप्रभ, कनकराज, कनकध्वज, काय नलिन नलिनप्रभ नविनराज नलिनध्वन नलिनपुंगव पद्म पद्मप्रभ, पद्मराज, पद्मध्वज, पद्मपुंगव और महापद्म । ये सभी बुद्धि और बल से सम्पन्न होंगे। इस काल का समय इक्कीस हजार वर्ष का होता है । मपु० ७६.४६०-४६६ 3 दुषमा दुःषमा अवसर्पिणी काल का छठा भेद । इसका काल इक्कीस हजार वर्ष का होता है । इस काल के आरम्भ में मनुष्यों की आयु बीस वर्ष तथा शरीर की अवगाहना दो हाथ होगी । काल के अन्त में आयु घटकर सोलह वर्ष तथा शरीर की ऊँचाई एक हाथ रह जावेगी । इस समय लोग स्वेच्छाचारी, स्वच्छन्द विहारी और एक दूसरे को मारकर जीवनयापी होंगे । सर्वत्र दुःख ही दुःख होगा । पपु० २०.८२, १०३-१०६, वीवच० १८.१२२-१२४ इस समय पानी सूख जायगा, पविवो अत्यन्त रूखी-सूखी होकर जगह-जगह फट जावेगी, वृक्ष सूख जायेंगे, प्रलय होगा, गंगा-सिन्धु और विजयार्ध की वेदिका पर कुछ थोड़े से मनुष्य गेली ए और केंकड़े खाकर जीवित रहेंगे और बहत्तर कुलों में उत्पन्न दुराचारी दीन-हीन जीव छोटे-छोटे बिलों में घुसकर जीवनयापन करेंगे। मपु० ७६.४४७-४५० उत्सर्पिणी का प्रथम काल भी इसी नाग का है । इसकी स्थिति भी इक्कीस हजार वर्ष की होती है, इसमें प्रजा की वृद्धि होती है, पृथिवी रूक्षता छोड़ देती है । क्षीर जाति के मेघों के बाद अमृत जाति के मेघ इस काल में बरसते हैं जिससे औषधियाँ वृक्ष, पौधे और घास पूर्ववत् होने लगते हैं । इसके पश्चात् रसाधिकजाति के मेघ बरसने से छहों रसों की उत्पत्ति होती है । बिलों में प्रविष्ट मनुष्य बाहर आ जाते हैं। वे उत्पन्न रसों का उपयोग कर हर्षपूर्वक जाते हैं । इस प्रकार काल-क्रम का ह्रास वृद्धि में परिणत होने लगता है । मपु० ३.१७-१८, ७६.४५४-४५९ · दु:षमा- सुषमा अवसर्पिणी काल का चतुर्थ और उत्सर्पिणी काल का तीसरा भेद । कर्मभूमि अवसर्पिणी के इसी काल से आरम्भ होती है । त्रेसठ शलाकापुरुषों का जन्म इसी काल में होता है । काल की स्थिति बियालीस हज़ार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर होती है । इसके आदि में मनुष्यों की आयु एक पूर्व कोटि शरीर पांच सौ धनुष उन्नत तथा पंचवर्णों की प्रभा से युक्त होगा । वे प्रतिदिन एक बार आहार करेंगे । मपु० ३.१७-१८, पपु० २०.८१ हपु० २.२२ वीवच० १८.१०१-१०४ उत्सर्पिणी के इस तीसरे काल में मनुष्यों का शरीर सात हाथ ऊँचा होगा और आयु एक सौ बीस वर्ष होगी । इनमें प्रथम तीर्थंकर सोलहवें कुलकर होंगे सौ वर्ष उनकी आयु होनी और शरीर सात हाथ ऊँचा होगा। अन्तिम तीर्थंकर की आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व तथा शरीर की अवगाहना पाँच सौ धनुष होगी । चौबीस तीर्थंकर होंगे उनके नाम ये हैं- महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व स्वयंप्रभ, सर्वात्मभूत, देवपुत्र, कुलपुत्र, उदंक, प्रोष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अरनाथ, अपाय, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, Jain Education International जैन पुरानकोश १६७ समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवर्ती, विजय, विमल, देवपाल और अनन्त वीर्यं । इसी काल में उत्कृष्ट लक्ष्मी के धारक बारह चक्रवर्ती होंगेभरत, दीर्घदन्त, मुक्तदन्त, गूड़दन्त, श्रीषेण, श्रीभूति, श्रीकान्त, पद्म, महापद्म, विचित्रवाहन, विमलवाहन और अरिष्टसेन । नौ बलभद्र होंगे - चन्द्र, महाचन्द्र चक्रपर, हरिचन्द्र सिंहचन्द वरचन्द्र पूर्णचन्द्र, सुचन्द्र और श्रीचन्द्र । इनके अर्चक नौ नारायण होंगे-नन्दी, नन्दिनि नन्दिनूति सुप्रसिद्ध महाबल अतिबल त्रिपृष्ठ और द्विपृष्ठ | इनके नौ प्रतिनारायण होंगे । मपु० ७६.४७० 7 " ४८९ दु:सह — राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का बारहवाँ पुत्र । पापु० ८. १९४ - दुकूल —— मृदु, स्निग्ध और बहुमूल्य ओढ़ने का वस्त्र । मपु० ६.६६, ९. २४, ४२, ११.२७ दुग्धवारिधि - क्षीरसागर । इन्द्र इसी समुद्र में तीर्थंकरों द्वारा लुंचित केशराशि का क्षेपण करते हैं । हपु० २.५३ इसमें प्रजा सब प्रकार से आनन्दित रहती दुन्दुभि (१) एक संवत्सर है । पु० १९.२२ (२) आहार दान से उत्पन्न पंचाश्चर्यों में एक आश्चर्य । मपु० ८.१७३-१७५ (३) युद्ध और मांगलिक अवसरों पर बजाया जानेवाला वाद्य । इसे देववाद्य भी कहते हैं । इनकी ध्वनि मेघगर्जना के समान होती है केवलज्ञान की उत्पत्ति होने पर ये वाद्य बजाये जाते हैं। महावीर . तीर्थंकर को केवलज्ञान होने के समय देवों ने साढ़े बारह करोड़ दुन्दुभि वाद्य बजाये थे । मपु० ६.८५-८६, ८९, १३, १७७, १७. १०६, २३.६१, पपु० २.१५२, ४.२६, १२.७, बीच० १५.१०-११ (४) एक नगर । पपु० १९.२ वुन्दुभिस्वन-सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । मपु० २५. १७० दुराधर्षोपमेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम म५० २५.१७२ दुर्ग - ( १ ) भरतक्षेत्र में पश्चिम का एक देश । हपु० ११.७१ (२) विजया की उत्तरश्रेणी के साठ नगरों में एक नगर । मपु० १९.८५, ८७ (३) राजा का पर्वत आदि पर बना सुरक्षित स्थान । यह शत्रु के लिए दुर्गम्य होता था । मपू० ३२.५४ दुर्गगिरि - भरतयक्षेत्र को दक्षिण दिशा में पोदनपुर नामक नगर का निकटवर्ती एफ पर्वत । गुणनिधि नामक मुनि ने इसी पर्वत के शिखर पर वर्षायोग किया था । पपु० ८५.१३९ दुर्गन्धा - चम्पा नगरी के घनिक वैश्य सुबन्धु और उसकी पत्नी धनदेवी की कन्या । इसका शरीर दुर्गन्धित था इसलिए यह इस नाम से प्रसिद्ध हुई। इसी नगर के निर्धन धनदेव के पुत्र जिनदेव के साथ इसका विवाह करना निश्चित हुआ। इधर जिनदेव इसके साथ अपने विवाह की चर्चा सुनकर घर से निकल गया तथा उसने समाधिगुप्त मुनि से धर्मोपदेश सुनकर मुनि-व्रत धारण कर लिया । इसके पिता सुबन्धु ने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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