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१६६ : जैन पुराणकोश
(२) एक तप । श्रुत केवली मुनि सागरदत्त ने यह तप किया था इसलिए वे इसी नाम से प्रसिद्ध हो गये । मपु० ७६.१३४ वीप्त ऋद्धि-उत्कृष्ट दीप्ति प्रदायक एक ऋद्धि । मपु० ११.८२ दीप्त तप ऋद्धि - उत्कृष्ट तप तपने में सहायक ऋद्धि । मपु० ११.८२ दीप्तकल्याणात्मा - सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम। मपु०
२५. १९४
दीर्घदन्त - आगामी उत्सर्पिणी काल का द्वितीय चक्रवर्ती । मपु० ७६. ४८२, हपु० ६०.५६३
बीर्घदर्शी - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का उन्नीसवाँ पुत्र । पापु० ८.१९५
दीर्घबाहु - (१) राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का बानबेवाँ पुत्र । पापु० ८.२०४
(२) राम का पक्षधर एक नृप । राजा सुबाहु का पुत्र, वज्रबाहु का पिता । पपु० १०२, १४५, हपु० १८.२ बीस्वपापणीय पूर्व की पंचमवस्तु के कर्म प्रकृति नामक पौधे प्राभृत ( पाहुड) का सत्रहवाँ योगद्धार । हपु० १०.८४ दे० अग्रायपीवपूर्व
दीर्घालाव - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का नव्वेवाँ पुत्र । पापु०
८. २०४
बोलोचन - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का सतासीव पुत्र । पापु० [० ८.२०३ बौधिक प्रासाद के सौन्दर्य की वर्धक एक लम्बी नहर । इसका तल और भित्ति मणिनिर्मित होते थे । जलक्रीडा के लिए भी इसका उपयोग होता था । मपु० ८.२२
दु-कर्ण- राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का पन्द्रहवां पुत्र पापु० ८. १९४
दुःख - ( १ ) असत् पदार्थों के ग्रहण और सत् पदार्थों के वियोग से उत्पन्न आत्मा का पीड़ा रूप परिणाम । यह असातावेदनीय कर्म का कारण होता है । पपु० ४३.३०, हपु० ५८.९३
(२) तीसरी नरकभूमि के प्रथम प्रस्तार में तप्त नामक इन्द्रक बिल की पूर्व दिशा का महानरक । हपु० ४.१५४ दुःखहरण — एक व्रत | इसमें सात भूमियों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु की अपेक्षा से चौदह, तियंचगति और मानवगति के पर्याप्तकअपर्याप्त जीवों की द्विविध आयु की अपेक्षा से चार-चार सौधर्म से अच्युत स्वर्ग तक चौबीस-चौबीस मी बेपकों के बारह नौ अनुदिशों के दो और पाँच अनुत्तर विमानों के दो इस प्रकार कुल अड़सठ उपवास किये जाते हैं। दो उपवासों के बाद एक पारणा करने से यह व्रत एक सौ दो दिन में पूर्ण होता है । हपु० ३४.११७
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१२०
दुः पराजय - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का साठवाँ पुत्र । पापु०
८.२००
बुः प्रगाह —- राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का छब्बीसवाँ पुत्र | पापु० ८.१९६
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दोप्त ऋषि- दुःषमा
हु-शल- राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का तेरहवाँ पुत्र पापु०
८. १९४
दुःशासन- राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी के सौ पुत्रों में द्वितीय पुत्र, दुर्योधन का अनुज तथा दुर्धर्षण आदि अन्य भाइयों का अग्रज | इसने भीष्म तथा द्रोणाचार्य से क्रमशः शिक्षा तथा धनुर्विद्या प्राप्त की थी । यह अर्धरथ राजा था। पापु० ८.२०८-२११ । विरोधवश द्रौपदी के निवास में प्रवेश कर उसकी केश राशि पकड़ कर उसे द्यूत सभा में लाने का इसने उद्यम किया था । कृष्ण जरासन्ध महायुद्ध के अठारहवें दिन पाण्डव भीम के द्वारा इसके जीवन का अन्त हो गया । मपु० ७०-११७-११८, हपु० ५०.८४, पापु० ८.१९१२११, १५.८४, १६.१२७-१२८, २०.२६५-२६५
दुःश्रव - राजा धृतराष्ट्र और रानी गान्धारी का सोलहवाँ पुत्र । पापु० ८.१९४
दुःश्रुति - अनर्थदण्डव्रत का एक भेद। इसके पालन में हिंसा तथा राग आदि की वर्धक कथाओं तथा पापबन्ध की कारणभूत शिक्षाओं का श्रवण निषिद्ध है । हपु० ५८.१४६, १५२
दुःषमा -- व्यवहार काल के दो भेदों में अवसर्पिणी काल का पाँचवाँ और उत्सर्पिणी काल का दूसरा भेद । अवसर्पिणी में इस काल के प्रभाव से मनुष्यों की बुद्धि, बल उत्तरोत्तर कम होता जाता है । यह इक्कीस हज़ार वर्ष का होता है । आरम्भ में मनुष्यों की आयु एक सौ बीस वर्ष, शारीरिक अवगाहना सात हाथ, बुद्धि मन्द, देह रुक्ष, रूप अभद्र होगा । वे कुटिल कामासक्त और अनेक बार के आहारी होंगे, ह्रास होते-होते अन्त में आयु बीस वर्ष तथा शारीरिक अवगाहना दो हाथ प्रमाण रह जायगी । इस काल में देवागमन नहीं होगा, केवलज्ञानी बलभद्र नारायण और चक्रवर्ती नहीं होंगे। प्रजा दुष्ट होगी, व्रतविहीना और निःशील होगी । मपु० २.१३६, ३.१७-१८, ७६.३९४३९६, पपु० २०.९१-१०३ हपु० ७.९५, वीचव० १८.११९-१२१ । इस काल के एक हजार वर्ष बीतने पर कल्किराज का शासन होगा । प्रति एक हजार वर्ष में एक-एक कल्कि होने से बीस कल्कि होंगे। मन्थन अन्तिम कल्कि राजा होगा, अन्तिम मुनि-वीरांगण, आर्थिक सर्वधी आवक अनिल और धाविका फल्गुतेना होगी । ये सब अयोध्या के वासी होंगे। इस काल के साढ़े आठ माश शेष रहने पर ये सभी मुनि आर्थिक धावक-धाविका शरीर त्याग कर कार्तिक मास की अमावस्या के दिन प्रातः वेला में स्वाति नक्षत्र के समय प्रथम स्वर्ग जायेंगे। मध्याह्न में राजा का नाश होगा और सायं वेला में अग्नि, कर्म, कुल देश धर्म सभी अपने-अपने विनाथ के हेतु प्राप्त कर नष्ट हो जावेंगे । मपु० ७६.३९७-४१५, ४२८४३८, उत्सर्पिणी के इस दूसरे काल में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष और ऊँचाई साढ़े तीन हाथ होगी, मनुष्य अनाचार का त्याग कर परिमित समय पर आहार लेंगे, भोजन अग्नि पर बनाया जावेगा, भूमि, जल और धान्य की वृद्धि होगी, मैत्री, लज्जा, सत्य, दया, दमन, सन्तोष, विनय, क्षमा, रागद्वेष की मन्दता आदि चारित्र प्रकट होंगे। इसी काल में अनुक्रम से निर्मल बुद्धि के धारक सोलह
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