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जैन पुराण-साहित्य अपने ढंग का अनूठा साहित्य है । अन्य पुराणकार इतिवृत्त की यथार्थता सुरक्षित नहीं रख सके हैं जबकि जैन पुराणकारों के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता। उन्होंने इतिवृत्त की यथार्थता को सुरक्षित रखने का भरसक प्रयास किया है । विद्वानों की मान्यता है कि पुराकालीन भारतीय परिस्थितियों को जानने के लिए जैन पुराणों से प्रामाणित सहायता प्राप्त होती है । जैन पुराणकोश की उपयोगिता
पूर्व विवेचित पुराण और वर्ण्य-विषय के परिपेक्ष्य में कहा जा सकता है कि प्रस्तुत कोश प्राचीन संस्कृति को समझने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। यहाँ संस्कृति से तात्पर्य है-शारीरिक या मानसिक शक्तियों के प्रस्फुटीकरण, दृढ़ीकरण, विकास अथवा उससे उत्पन्न आध्यात्मिक अवस्था ।० डॉ० रामजी उपाध्याय का अभिमत है कि संस्कृति वह प्रक्रिया है जिससे किसी देश के सर्वसाधारण का व्यक्तित्व निष्पन्न होता है। इस निष्पन्न व्यक्तित्व के द्वारा लोगों के जीवन और जगत के प्रति एक अभिनव दृष्टिकोण मिलता है। कवि इस अभिनव दृष्टिकोण के साथ अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का सामंजस्य करके सांस्कृतिक मान्यताओं का मूल्यांकन करते हुए उसे सर्वजन ग्राह्य बनाता है।"
जैन पुराण कोश में ऐसी ही सामग्री संकलित है। व्यक्ति-वाचक संज्ञाओं के साथ उल्लिखित उनकी जीवनघटनाओं में उनके उत्थान-पतन की कथा समाहित है । इससे न केवल वैचारिक दृढ़ता उत्पन्न हुई है अपितु, आध्यात्मिक विकास का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है। तन और मन से निवृत्ति मार्ग की शोध-खोज के संदर्भ हेय और उपादेयता का प्रतिबोध लिये हैं । इससे जैन पुराण कोश का विशेष अवदान समझ में आता है। इसमें दी गई भौगोलिक सामग्री को शोध का विषय बनाया जा सकता है । देश, ग्राम, नगर, नदी, पर्वत, द्वीप, सागर आदि के नाम वर्तमान संदर्भ में शोधाथियों के लिए बड़ी उपयोगी सामग्री है। इसी प्रकार इतिहास के विद्यार्थियों और विद्वानों के लिए भी प्रस्तुत कोश में शोधोपयोगी प्रचुर सामग्री है । विभिन्न वंशों का जैन और जनेतर पुराणों के संदर्भ में तुलनात्मक अध्ययन शोध का विषय हो सकता है।
दर्शन के जिज्ञासुओं की पिपासा भी इससे शांत होगी। इसमें दी गई पारिभाषिक पदावली प्रायः वही है जो जैन दार्शनिक ग्रंथों में मिलती है । इस प्रकार परम्परा-प्राप्त सांस्कृतिक मान्यताओं का दिग्दर्शन भी इनमें कराया गया है। जैन पुराणकोश की आवश्यकता
श्रमण संस्कृति निवृत्तिप्रधान संस्कृति है। इसमें प्रतिपादित सिद्धान्त पतित से पावन बनने के स्रोत हैं। निग्रंथ श्रमणों ने आत्मोत्कर्ष हेतु सिद्धान्त-ग्रंथों का अध्ययन किया और उनका ही उपदेश दिया। फलतः सिद्धान्त ग्रंथों का स्वाध्याय प्रारम्भ हुआ और यह तब तक अनवरत चलता रहा जब तक कि उनके समझने में कठिनाईयों का अनुभव नहीं हुआ।
कठिनाईयों के आने पर उन्हें दूर करने के प्रयत्न किये गये। सर्वप्रथम स्व०५० गोपालदास बरैया ने इस क्षेत्र में काम किया। उन्होंने ईस्वी सन् १९०९ में 'जैन सिद्धान्त प्रवेशिका' नामक पुस्तक की रचना की। यह कोश बहुत चर्चित रहा । इसके पश्चात् ईस्वी सन् १९१४ में रतलाम से सात भागों में 'अभिधान-राजेन्द्र-कोश' प्रकाशित हुआ। अजमेर-बम्बई से ईस्वी सन् १९२३-३२ में श्री रतनचंदजो द्वारा 'एन इल्लस्ट्रेडेड अर्धमागधी डिक्सनेरी' के पाँच भाग तैयार किये गये । ईस्वी सन् १९२४-३४ में बाराबंकी-सूरत से श्री बी० एल० जैन द्वारा आरम्भ किया गया 'वृहद्जैनशब्दार्णव' शीतलप्रसाद जी द्वारा सम्पादित होकर दो भागों में प्रकाशित हुआ।
समय ने करवट ली । पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी द्वारा संस्थापित दिगम्बर जैन विद्यालयों में जब तक सिद्धान्त अन्थों का अध्यापन होता रहा उन ग्रन्थों को समझनेवाले भी तैयार होते रहे। वर्तमान में उन विद्यालयों में न वे मर्मज्ञ विद्वान् अध्यापक ही है और न ही जिज्ञासु छात्र ! सिद्धांत ग्रन्थों के अध्ययन में उत्पन्न कठिनाईयाँ बढ़ती गई। परिणामस्वरूप सिद्धान्त ग्रन्थों का स्थान पुराणों ने लिया। वे कथाप्रधान होने से रुचिकर हुए । जानने-समझने में भी पाठकों को सरलता का अनुभव हुआ। पुराणों के बढ़ते हुये महत्त्व को देखकर पुराणों के शब्दों को कोश-ग्रन्थों में सम्मिलित किया जाने लगा। भारतीय ज्ञानपीठ से ईस्वी सन् १९७० में प्रकाशित 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' और श्री वीर सेवा मंदिर, २१, दरियागंज, नई दिल्ली-२ से सन् १९७२ में प्रकाशित 'जैन लक्षणावली' ऐसे ही कोश-ग्रन्थ हैं। इस प्रकार जहाँ
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