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________________ सम्पादकीय जैन पुराण जैन संस्कृति के दर्पण हैं। इनमें पुरातन संस्कृति प्रतिबिम्बित है। का उल्लेख होने से इन्हें पुराण कहा जाता है ।" ऋषिप्रणीत होने से इन्हें 'आर्ष', तथा धर्म के प्ररूपक होने से इन्हें 'धर्मशास्त्र' भी माना जाता है। ' इति इह आस' वर्णन होने से इन्हें 'इतिहास', 'इतिवृत्त' और ऐतिह्य भी माना गया है । जैन पुराणों का मूल कथन गणधर देव ने किया है। परम्परा से प्राप्त उसी कथन से जैन पुराण रचे गये हैं । इनकी शैली आलंकारिक है । पुराण केवल संस्कृत भाषा में ही नहीं रचे गये हैं अपितु कन्नड़, अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाओं में भी रचे गये हैं। अधिकतर प्राचीन पुराण संस्कृत भाषा में रचे ही प्राप्त होते हैं । इनमें पद्मपुराण सर्वाधिक प्राचीन है । महापुराण और हरिवंश पुराण भी अन्य पुराणों की अपेक्षा प्राचीन है ये तीनों ही पुराण बहुचर्चित हैं । सामान्यतः इन्हीं का स्वाध्याय किया जाता है। तीर्थंकर महावीर का शासन होने से उनका चरित्र और महाभारत भी अभिरुचि देखी गई है। प्राचीनता और सामाजिक अभिरुचि ही होने का कारण है । का प्रभाव होने से 'पाण्डव पुराण' के स्वाध्याय में केवल इन ही पाँच पुराणों के प्रस्तुत कोष हेतु चयन वर्ण्य विषय प्राचीन काल से प्रचलित कथाओं सत्यार्थ निरूपक होने से इन्हें 'सूक्त' यहाँ ऐसा हुआ ऐसी कथाओं का जैन पुराणों का वर्ण्य विषय तिरेसठ शलाका पुरुषों का जीवन-चरित उनके पूर्व भवों तथा उत्तर भवों के साथ वर्णित है । वे तिरेसठ शलाका पुरुष हैं- चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलभद्र, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण । ४ महापुराण में इन्हीं तिरेसठ सत्पुरुषों का जीवनवृत्त है । पद्मपुराण में बलभद्र पद्म ( राम ) नारायण, लक्ष्मण और प्रतिनारायण रावण का । हरिवंशपुराण में नारायण-कृष्ण, बलभद्र बलराम और प्रतिनारायण जरासंघ का, वीर वर्धमान चरित में तीर्थंकर महावीर का और पाण्डवपुराण में प्राचीन दो राजवंशों कौरवों व पाण्डवों का वर्णन है । इससे स्पष्ट है कि एक शलाका पुरुष के जीवनवृत्त को भी पुराण का वर्ण्य विषय बनाया जा सकता है । वर्ण्य विषय के सन्दर्भ में आचार्य जिनसेन द्वारा प्रतिपादित पुराण की दो परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं- प्रथम परिभाषा के अनुसार क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष तथा उनकी चेष्टायें पुराण का व विषय होती है।" इसके अनुसार तीन लोक की रचना को क्षेत्र, भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीन को काल, मोक्ष प्राप्ति के उपायभूत सम्यग्दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र इन त्रिरत्नों को तीर्थ, इस तीर्थ के सेवी सत्पुरुषों को शलाका पुरुष और उनके न्यायोपात्त आचरण उनकी चेष्टायें कहछाती है। द्वितीय परिभाषा में इन पाँच में से केवल तीर्थ को ही परिगणित किया गया है। इस परिभाषा के अनुसार पुराण के वयं विषय ये आठ होते हैं - १. लोक, २. देश, ३. पुर, ४० राज्य, ५. तीर्थ, ६. दान व तप, ७. गति, ८. फल। इनमें लोक का नाम, उसकी व्युत्पत्ति, प्रत्येक दिशा तथा उनके अन्तरालों की लम्बाई-चौड़ाई का वर्णन-लोकाख्यान; लोक के किसी एक भाग के देश, पहाड़, द्वीप, समुद्रादि के विस्तार का वर्णन - देशाख्यान; राजधानी का वर्णन पुराख्यान; राजा के राज्य विस्तार का वर्णन राजाख्यान; अपार संसार से पार करनेवाला तीर्थ और ऐसे तीर्थंकर का वर्णन - तीर्थाख्यान; दान और तप का महत्त्व दर्शानेवाली कथाओं का वर्णन-दान- तपाख्यान; गतियों का वर्णन गत्याख्यान और मोक्ष प्राप्तिपर्यन्त पुण्य-पाप- फल का वर्णन फलाख्यान बताया गया है । पुराण को सत्कथा संज्ञा भी दी गई है। ऐसी कथा के १. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. तीर्थ, ४. काल, ५. भाव, ६. महाफल, ७. प्रकृत ये सात अंग होते हैं । द्रव्य छह हैं—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । त्रिलोक क्षेत्र कहा जाता है । तीर्थंकर का चरित तीर्थ, भूत, भविष्यत् और वर्तमान ये तीनों समय काल; क्षायोपशमिक और क्षायिक ये दो भाव; तत्त्वज्ञान की प्राप्ति फल और कथावस्तु प्रकृत कहलाती है ।" इस प्रकार जैन पुराणों के बच्चे-विषयक अध्ययन से ज्ञात होता है कि इन पुराणों की विषय-वस्तु का केन्द्रबिन्दु शलाका पुरुषों का जीवनचरित ही रहा और आत्मोत्कर्ष उनका लक्ष्य । इसी कारण वैदिक पुराणों को तरह इनका विभाजन नहीं हो सका ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016061
Book TitleJain Puran kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages576
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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