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________________ (vii) अन्तर का स्पष्टीकरण करना और भी अधिक कठिन है। प्रस्तुत कोश में यथासंभव इन बातों पर विशेष ध्यान दिया गया है। समय के साथ भाषा, शैली और अर्थ में परिवर्तन होता है-यह सर्वविदित है। यही कारण है कि आगमों में वर्णित अनेक शब्द ऐसे हैं जो भाषा, शैली और अर्थावबोध के परिवर्तन के कारण उनकी पहचान दुष्कर-सी हो गयी है। वैसी स्थिति में यह उलझन पैदा हो जाती है कि शब्द-विशेष का बिल्कुल सही अर्थ क्या होना चाहिए। इसका निष्कर्ष निकालने के लिए अन्य आगम ग्रंथ, अन्य समकालीन साहित्य, विभिन्न प्रकार के कोश ग्रंथ, आधुनिक प्राणिशास्त्रीय ग्रंथ आदि का विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। मैं कुछेक शब्दों का विमर्श यहां प्रस्तुत कर रहा हूं-'छीरल' शब्द प्रश्नव्याकरण सूत्र में भुजपरिसर्प (सर्पवर्ग) के अन्तर्गत उल्लिखित है। आधुनिक किसी भी कोश में यह शब्द प्राणी के अर्थ में प्राप्त नहीं हुआ। फिर प्रान्तीय भाषाओं के कोश के अवलोकन से यह ज्ञात हुआ कि 'छीरल' शब्द उ.प्र. में 'सांप की वामनी' (सर्पवर्ग) के लिए प्रयुक्त होता है। अतः अर्थ की संगति बैठ गई। 'पक्खिविराली' शब्द भगवती 3/1 और प्रज्ञा. 1/79 में चर्म पक्षी के रूप में प्रयुक्त हुआ है। व्याख्याकारों ने उसका संस्कृत रूपान्तर ‘पक्षिविडाली' किया है। किन्तु उसका स्पष्टार्थ नहीं बताया है यह किस पक्षी का वाचक है। अनेक कोशों एवं ग्रंथों का अवलोकन करने के बाद भी इस शब्द का अवबोध नहीं हो पाया। फिर डॉ. के.एन. दवे की Bird in Sanskrit Literature में यह शब्द प्राप्त हुआ। उन्होंने इनका अर्थ-A Flying fox, The large fruit Bat उड़ने वाली लोमड़ी, बड़ी चमगादड़ किया है। यही अर्थ संभवतः आगमकार को इष्ट था। 'चोर' शब्द ठाणं 1/3/15 भग. 9/150 में प्राणिवर्ग में प्रयुक्त हुआ है। व्याख्याकारों ने इसकी व्याख्या नहीं की है। इस शब्द की जानकारी के लिए अनेक कोशों को देखा गया, पर प्राणी के अर्थ में यह शब्द उपलब्ध नहीं हुआ। फिर प्रान्तीय भाषाओं के कोश के अवलोकन से यह ज्ञात हुआ कि 'चोर' शब्द हरियाणा में एक जंगली जानवर के लिए प्रयुक्त होता है जिसे वर्तमान में 'रेटेल' नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार और भी अनेक शब्द हैं-जैसे क्षीर विडालिका, सल्ल, पोंडरीय, हलिमच्छ आदि। . जिस प्रकार अर्थवोध के परिवर्तन के कारण वर्तमान की चालू भाषा में पहचान दुष्कर है उसी प्रकार आगमों में अनेक शब्द ऐसे भी आए हैं, जो लक्षणों के आधार पर उल्लिखित हैं जैसे-आसीविष । आसीविष शब्द ठाणं, प्रज्ञा, प्रश्नव्या. आदि. आगमों में प्रयुक्त हुआ है, जिसका अर्थ है, जिस सर्प की दाढा में विष हो उसे आसीविष कहते हैं। यह शब्द सर्प के लक्षण के आधार पर रखा गया प्रतीत होता है। यह कोई नाम नहीं है, केवल लक्षण है। पुप्फविंटिय शब्द भी आगमों में अनेक स्थलों पर प्राप्त होता है। इसका अर्थ है-पुष्प के वृन्त में पाए जाने वाला कीट। यह नाम भी किसी एक कीट के लिए प्रयुक्त हुआ हो ऐसा संभव नहीं लगता, बल्कि जो भी कीट पुष्प के वृन्त में पाए जाते हैं वे पुष्पविंटिय कहलाते हैं। इसी प्रकार फल के वृन्त में पाए जाने वाले कीट ‘फलविंटिय,' तने में पाए जाने वाले कीट 'तणविंटिय' कहलाते हैं। जिनकी दृष्टि में विष होता है, वे सर्प दृष्टिविष कहलाते हैं तथा जिनकी लाला विषमय होती है वे सर्व लालाविष कहलाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016052
Book TitleJain Agam Prani kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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