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________________ संपादकीय जैन आगमों का ज्ञान सूक्ष्म और गहनतम है। इसमें आत्मविद्या के साथ-साथ सृष्टि, पर्यावरण-संतुलन, अणु-परमाणु, वनस्पति, खनिज, वस्त्र, वाद्ययंत्र, आभूषण, प्राणी आदि के विषय में महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। किन्तु अभी तक कुछेक विषयों को छोड़कर अनेक विषय ऐसे हैं जिनका विधिवत् स्पर्श भी नहीं किया गया। अनेक विषय अछूते हैं। आवश्यकता है कि उन विषयों को छुआ जाये और आधुनिक संदर्भ में उनको प्रस्तुत किया जाये। वैसे तो लगभग उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही विश्व के विद्वानों का ध्यान भारत के अमूल्य प्राचीन साहित्य की ओर आकृष्ट हो चुका था। मैक्समूलर जैसे प्राच्य विद्वानों ने जब से भारतीय वाङ्मय को अनुदित कर विद्वज्जगत् में प्रस्तुति दी है तब से विद्या की विभिन्न शाखाओं के तज्ज्ञों ने 2500-3000 वर्ष पुराने शास्रों को अपने अनुसंधान का विषय बनाना शुरू कर दिया था। वैदिक एवं बौद्ध परम्पराओं पर पिछले 150 वर्षों में सहस्रों शोध-ग्रंथ विभिन्न विद्या-शाखाओं के शोधकर्ताओं ने प्रकाशित किए हैं। इनकी तुलना में जैन परम्परा के विपुल साहित्य पर अब तक भी बहुत कम शोध-कार्य हो पाया है। वैसे तो आगम-साहित्य पर अनेक कोश निर्मित हुए हैं। फिर भी शोधकर्ताओं को एक विषय की सम्पूर्ण सामग्री एक ग्रंथ में प्राप्त हो सके, इस अपेक्षा को ध्यान में रखकर पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने आगम संपादन के साथ-साथ कोश निर्माण का कार्य भी हाथ में लिया। उनके मार्गदर्शन में एकार्थक कोश, निरुक्त कोश, देशीशब्द कोश, श्री भिक्षु आगम विषय कोश, वनस्पति कोश आदि कोश ग्रंथ प्रकाश में आए। प्राणी कोश की परिकल्पना और निष्पत्ति ___आज से लगभग तीन वर्ष पूर्व पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी, आचार्य श्री महाप्रज्ञ के सान्निध्य में भगवतीसूत्र के संपादन का कार्य चल रहा था। संपादन के अन्तर्गत एक स्थान पर अनेक पशु-पक्षियों के नामों का उल्लेख आया। उनके अर्थावबोध के लिए व्याख्या ग्रंथों का अवलोकन किया गया। किन्तु व्याख्य अनेक शब्दों को 'लोकतश्चावगन्तयाः लोकतो वेदितव्याः' 'पक्षी विशेषः, पशु-विशेषः' आदि आदि कहकर उनके अवबोध की पूर्ण अवगति नहीं की। विभिन्न कोशों का अवलोकन करने के बाद भी हम निर्णायक स्थिति तक नहीं पहुंच पाए। तब गुरुदेव ने फरमाया-वनस्पति कोश की भांति यदि प्राणी कोश भी तैयार हो जाए तो चिर अपेक्षित कार्य की संपूर्ति संभव है। कोश निर्माण का कार्य भी आगम की महत्त्वपूर्ण सेवा है। इस कार्य के लिए गुरुदेव ने मुझे इंगित करते हुए कहा-क्या तुम इस कार्य को कर सकते हो? मैंने 'तहत्ति' कहकर अपनी सहमति प्रकट की और उसी दिन से इस कार्य में संलग्न हो गया। सर्वप्रथम मैंने जैनागमों में प्रयुक्त प्राणी वाचक शब्दों की एक सूची बनाई और फिर उनके स्वरूप निर्णय के लिए अनेक ग्रंथों का अवलोकन प्रारम्भ किया। यह स्पष्ट है कि इस प्रकार का कार्य सरल नहीं है। प्राकृत भाषा में प्रयुक्त प्राणीवाचक शब्द वस्तुतः किस प्राणी-विशेष के परिचायक हैं, उसे सही सही जान लेना एवं आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के संदर्भ में उसकी तुलनात्मक प्रस्तुति कर देना एक बहुत ही श्रमसाध्य कार्य है। एक ही प्रजाति के प्राणियों की विभिन्न नस्लों के लिए अलग-अलग नामों का प्रयोग जहां हुआ है, वहां उनके बीच रहे हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016052
Book TitleJain Agam Prani kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages136
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary, Dictionary, Agam, Canon, & agam_dictionary
File Size17 MB
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