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वर्धमान अवधि (परमावधि) का उत्कृष्ट क्षेत्र
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अवधिज्ञान
४. संख्यात गुण वृद्धि ४. संख्यात गुण हानि समये सकल निजशरीरसम्बद्धमात्मप्रदेशानामायाम ५. असंख्यात गुण वृद्धि ५. असंख्यात गुण हानि संहृत्याङ गूलासंख्येयभागबाहल्यं स्वदेहविष्कम्भायाम६. अनन्त गुण वृद्धि ६. अनन्त गुण हानि विस्तारं प्रतरं करोति । तमपि द्वितीयसमये संहृत्याङ गुलावुड्ढीए चिय वुड्ढी हाणी हाणीए न उ विवज्जासो। सङ्ख्यभागबाहल्यविष्कम्भां मत्स्यदेहविष्कम्भायामात्मभागे भागो गुणणे गुणो य दवाइसंजोए॥ प्रदेशाना सूचि विरचयति । ततस्तृतीयसमये तामपि
(विभा ७३३) संहृत्याङ गुलासङ ख्येयभागमात्र एवं स्वशरीरबहिःप्रदेशे द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में परस्पर द्रव्य की वृद्धि होने सूक्ष्मपरिणामपनकरूपतयोत्पद्यते । तस्योपपातसमयादारभ्य पर क्षेत्र आदि की भी वृद्धि होती है और एक की हानि तृतीये समये वर्तमानस्य यावत्प्रमाणं शरीरं भवति होने पर दूसरे की भी हानि होती है। इनमें से परस्पर तावत्परिमाणं जघन्यमवधेः क्षेत्रमालम्बनवस्तुभाजनमएक की वृद्धि और दूसरे की हानि-यह विपर्यास नहीं वसेयम् ।
(नन्दीमवृ प ९१) होता। द्रव्य आदि में से एक की भाग रूप में वृद्धि- इस विषय की गुरुपरम्परा यह है-एक मत्स्य, हानि होने पर दूसरे की वृद्धि-हानि भाग रूप में ही जो हजार योजन लम्बा है, जो अपने ही शरीर के बाह्य होती है। एक की वृद्धि-हानि गुणन रूप में होने पर भाग के एक देश में उत्पन्न होने वाला है, वह पहले समय दूसरे की वृद्धि-हानि गुणन रूप में ही होती है। में अपने शरीर में व्याप्त सब आत्मप्रदेशों की लम्बाई को अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र : पनक का दृष्टांत
संकुचित कर प्रतर बनाता है। उस प्रतर की मोटाई जावइआ तिसमयाहारगस्स सहमस्स पणगजीवस्स ।
अंगुल के असंख्येयभागप्रमाण तथा लम्बाई-चौड़ाई अपने ओगाहणा जहण्णा, ओहीखेत्तं जहणं तु ॥ दहप्रमाण हाता है।
(नन्दी १८११) दूसरे समय में वह उस प्रतर को संकुचित कर स्वतीन समय के आहारक सूक्ष्म पनक (वनस्पति देहप्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाले आत्मप्रदेशों की सूची विशेष) जीव के शरीर की जितनी जघन्य अवगाहना बनाता है। उस सूची की मोटाई और चौड़ाई अंगुल के होती है, उतना अवधि का जघन्य क्षेत्र है।
असंख्येयभागप्रमाण होती है। पढम-बिईएऽतिसण्हो जमइत्थूलो चउत्थयाईसु । तीसरे समय में उस सूची को संकुचित कर अंगुल के तइयसमयम्मि जोग्गो गहिओ तो तिसमयाहारो॥ असंख्येयभागप्रमाण, अपने शरीर के बाहरी प्रदेश में
(विभा ५९५) सूक्ष्म परिणति वाले पनक के रूप में उत्पन्न होता है। प्रथम और द्वितीय समय में 'पनक' की अवगाहना उत्पत्ति के तीसरे समय में पनक के शरीर का जितना अत्यन्त सूक्ष्म होती है। चतुर्थ, पंचम आदि समयों में वह प्रमाण होता है, उतने ही प्रमाण वाला जघन्य क्षेत्र है अतिस्थूल हो जाती है। तृतीय समय में उसकी जितनी ___अवधिज्ञान का। इतने क्षेत्र में अवस्थित रूपी वस्तु अवगाहना होती है, उतना क्षेत्र अवधिज्ञान का विषय अवधिज्ञानी का विषय बनती है । बनता है। इसलिए 'त्रिसमयआहारक पनक' का ग्रहण
९. वर्धमान अवधि (परमावधि) का उत्कृष्ट क्षेत्र उचित है। जो जोयणसाहस्सो मच्छो नियए सरीरदेसम्मि ।
सव्वबह अगणिजीवा, निरन्तरं जत्तियं भरिज्जस् । उववज्जतो पढमे समए संखिवइ आयामं ॥
खेत्तं सव्वदिसागं, परमोही खेतनिट्रिो । पयरमसंखिज्जंगुलभागतणुं मच्छदेहविच्छिण्णं ।
(नन्दी १८१२) बीए तइए सूई संखिविउ होइ तो पणओ ॥
जिस समय अग्नि के सर्वाधिक जीवों ने निरन्तर उववायाओ तइए जं देहमाणमेयस्स ।
जितने क्षेत्र को व्याप्त किया था, उतना सब दिशाओं में तण्णेयदव्वभायणमोहिक्खित्तं जहन्नं तं ।। परमावधि का क्षेत्र होता है।
(विभा ५८९-५९१) उक्कोसया य सुहुमा जया तया सव्वबहुगमगणीणं । अत्र चायं सम्प्रदायः-यः किल योजनसहस्रपरिमा- परिमाणं संभवओ तं छद्धा पूरणं कुणइ ।। णायामो मत्स्यः स्वशरीरबाह्य कदेश एवोत्पद्यमानः प्रथम
(विभा ६००)
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