________________
अवधिज्ञान
सूचीग्रहण के दो गुण
जब सूक्ष्म अग्निजीव उत्कृष्ट रूप में उत्पन्न होते २. एक-एक आकाशप्रदेश में एक-एक जीव की स्थापना हैं, तब बादर अग्निजीवों के साथ मिलकर सर्वबहु आगमविरुद्ध है। क्योंकि आगम में असंख्येय अग्नि जीवों का परिमाण संभव होता है। यह आकाशप्रदेशों के बिना जीव के अवगाह का निषेध अवसर्पिणी में द्वितीय तीर्थकर के काल में हआ था। इस संभावना को छह प्रकार से व्यवस्थापित किया जा
सूचीग्रहण के दो गुण सकता है।
सूचिरेकैकजीवस्यासंख्येयाकाशप्रदेशावगाहे व्यवस्थाएक्केक्कागासपएसजीवरयणाए सावगाहे य ।
पितत्वाद् बहुतरं क्षेत्रं स्पृशति, इत्येको गुणः। अवगाहचउरंसघणं पयरं सेढी छटो सुयाएसो॥
विरोधाभावस्तु द्वितीयः। (विभामवृ पृ २७०) (विभा ६०१)
१. सूची में एक-एक जीव असंख्येय आकाश प्रदेशों एक-एक आकाश-प्रदेश में जीव रचना के द्वारा और में पंक्ति रूप में अवगाढ होता है, तब बहतर क्षेत्र की स्व-अवगाह (स्थापना) द्वारा चतुरस्र संस्थान में घन, पर्णता कमा प्रतर और श्रेणि के भेद से छह प्रकार के आदेश संभव
२ इस अवगाह का आगम में विरोध नहीं है। हैं। उनमें केवल छठा आदेश ही श्रुतादेश है । प्रथम पांच
इसलिए सूचीलक्षणात्मक छठे विकल्प का ही आगम आदेश सदोष हैं, अतः अग्राह्य हैं।
में आदेश --ग्रहण है। तैः सर्वैरप्यग्निजीवै: समचतुरस्रो घनो यतो द्विभेदः घण-पयरसेढिगणियं नण तुल्लं चिय विगप्पणा कीस । स्थाप्यते ।""एकैकाकाशप्रदेश एकैकाग्निजीवरचनया छद्धा कीरइ भण्णइ परिसपरिक्खेवओ भेओ। स्वावगाहे चासंख्येयाकाशप्रदेशलक्षण एकैकाग्निजीव
(विभा ६०२) रचनयेति ।...
एकैकप्रदेशावगाढजीवधनो भ्रम्यमाणो यावत् क्षेत्र एवमेकैकाकाशप्रदेशे एकैकजीवस्थापनयाऽसंख्येयप्रदेशा- स्पृशति, तस्मादसंख्येयप्रदेशावगाढजीवघनोऽसंख्येयगुणं त्मकस्वावगाहस्थापनया च प्रतरोऽपि द्विभेदः। सूचिरपि स्पृशति, ततोऽप्येकैकप्रदेशावगाढजीवप्रतरोऽसंख्येयगुणं, द्विभेदा । तत्र घनप्रतरपक्षश्चतुर्भेदः, पञ्चमश्चैकैकाकाश- तस्मादप्यसंख्येयप्रदेशावगाढजन्तुप्रतरोऽसंख्येयगुणं, ततोप्रदेशव्यवस्थापितकैकजीवलक्षणसूचिपक्षोऽपि न ग्राह्यः, ऽप्येकैकप्रदेशावगाढजीवसूचिरसंख्येयगुणं, तस्मादप्यदोषद्वयानुषङ्गात् । तथाहि-पञ्चविधयाऽप्यनया संख्येयाकाशप्रदेशावगाढेकैकाग्निजीवसूचिरवधिज्ञानिन: स्थापनया स्थापिता अग्निजीवाः षट्स्वपि दिक्ष्ववधि- सर्वासु दिक्ष भ्रम्यमाणाऽसंख्येयगुणं क्षेत्रं स्पृशति, ज्ञानिनोऽसत्कल्पनया भ्रम्यमाणा: स्तोकमेव क्षेत्रं स्पृशन्ती- तच्चाऽलोके लोकप्रमाणान्यसंख्येयाकाशखण्डानि । अत त्येको दोषः । एकैकाकाशप्रदेशे एकैकजीवस्थापनाया- एतावदेवावधेरुत्कृष्टं क्षेत्र विषयः। . मागमविरोधश्च द्वितीयदोषः, असंख्येयाकाशप्रदेशानन्त
(विभामवृ पृ २७१) रेणाऽगमे जीवावगाहनिषेधात् ।
एक-एक प्रदेशावगाढ जीवधन भ्रमण करता हुआ (विभामवृ पृ २६९, २७०) जितना क्षेत्र स्पर्श करता है, उससे असंख्यप्रदेशावगाढ घन, प्रतर, सूची-ये दो-दो प्रकार के होते हैं- जीवघन असंख्यात गुना स्पर्श करता है। उससे एक-एक
प्रदेशावगाढ जीवप्रतर असंख्यात गूना स्पर्श करता है। १. एक-एक आकाश प्रदेश में एक-एक जीव ।
उससे असंख्येय प्रदेशावगाढ जीवप्रतर असंख्यात गुना २. असंख्यात-असंख्यात आकाशप्रदेशों में एक-एक
स्पर्श करता है। उससे एक-एक प्रदेशावगाढ जीवसूची ___ जीव ।
असंख्यात गुना स्पर्श करता है। उससे असंख्येय प्रदेशावइस प्रकार तीनों के छह प्रकारों में पांच सदोष
गाढ जीवसूची असंख्यात गुना स्पर्श करता है। यह हैं। दोष के दो कारण हैं
अग्निकाय के जीवों की सूची है। १. असत्कल्पना से अवधिज्ञानी के छहों दिशाओं में ये सर्व दिशाओं में भ्रमण करते हुए असंख्यात गुना
भ्रम्यमाण ये जीव थोड़े ही क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। क्षेत्र-स्पर्शन करते हैं। यह अलोक में लोक प्रमाण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org