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वर्धमान अवधिज्ञान
उस ज्योतिस्थान को देखता है । अन्यत्र चले जाने पर उसे नहीं देखता ।
इसी प्रकार अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी क्षेत्र से सम्बद्ध अथवा असम्बद्ध संख्येय अथवा असंख्येय योजन तक जानता देखता है, क्षेत्र का परिवर्तन होने पर नहीं देखता । इयरो य नाणुगच्छइ ठियपईवो व्व
गच्छंतं । ( विभा ७१५ ) अनानुगामुकं नावधिज्ञानिनं गच्छन्तमनुगच्छति, सङ्कलाप्रतिबद्धप्रदीपवत् । ( नन्दीहावृ पृ २३ ) एक स्थान पर स्थित अथवा सांकल से प्रतिबद्ध दीपक की भांति जो ज्ञान गमनप्रवृत्त अवधिज्ञानी का अनुगमन नहीं करता, वह अनानुगामिक अवधिज्ञान है । अनुगामिक- अनानुगामिक के अधिकारी
अणुगामिओ उ ओही, नेरइयाणं तहेव देवाणं । अणुगामी अणणुगामी, मीसो य मणुस्सतेरिच्छे ॥ ( आवनि ५६ )
नारक और देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक होता है | मनुष्य और तिर्यचों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अनुगामिक और मिश्र तीनों प्रकार का होता है । ८. वर्धमान अवधि की परिभाषा
वड्ढमाणयं ओहिनाणं - पसत्थेसु अज्झवसाणट्ठाणेसु माणस्स वट्टमाणचरित्तस्स विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरितस्स सव्वओ समंता ओही वड्ढइ । ( नन्दी १८ )
जो प्रशस्त अध्यवसायों में वर्तमान और चरित्र में वर्तमान है, जो विशुद्धयमान और विशुद्ध्यमान चरित्र वाला है, उसका अवधिज्ञान सब ओर से बढ़ता हैं । यह वर्धमान अवधिज्ञान है ।
पुव्वावत्थातो उवरुवरि वड्ढमाणं ति । तं च उस्सण्णं चरणगुणविद्धिमपेक्ख, ततो पसत्थज्झवसाणट्ठाणा आदिपसत्थलेसाणुगता भवंति । पसत्थदव्वलेसाहि अणुरंजितं चित्तं सत्थज्भवसाणो भण्णति । पसत्थज्भवसाणातो चरणातविसुद्ध | चरणाऽऽतविसुद्धीतोय चरणपच्चतलद्वीणं वड्ढी भवति । ( नन्दी चू पृ १८ ) पूर्व अवस्था की अपेक्षा से जो उत्तरोत्तर बढ़ता है, वह वर्धमान कहलाता है । वर्धमान अवधि प्रायः चारित्रपर्यवों की विशुद्धि से होता है । चारित्रविशुद्धि से प्रशस्त तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले प्रशस्त
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अवधिज्ञान
अध्यवसाय होते हैं । प्रशस्त अध्यवसायों से चरणगुणसम्पन्न आत्मा की विशुद्धि होती है । इससे चरणशुद्धिजन्य लब्धि ( अवधिज्ञान ) की वृद्धि होती है । उत्पत्तिकालादारभ्य प्रवर्द्धमानम् ।
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( नन्दी हावृ पृ २३ ) जो उत्पत्तिकाल से निरन्तर बढता जाता है, वह वर्धमान अवधिज्ञान है ।
बहुबहुत रेन्धनप्रक्षेपादिभिर्वर्द्धमानदहन ज्वालाकलाप पूर्वावस्थातो यथायोगं प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायभावतोऽभिवर्द्धमानमधिज्ञानं वर्द्धमानकं तच्चासकृद्विशिष्टगुणविशुद्धिसापेक्षत्वात् । ( नन्दीमवृप ८२ ) जैसे प्रचुर इन्धन डालने से अग्नि बढती है, वैसे ही प्रशस्त-प्रशस्ततर अध्यवसायों के कारण उत्तरोत्तर बढ़ने वाला अवधिज्ञान वर्धमान अवधिज्ञान है । उसकी बारबार वृद्धि गुण - विशुद्धि सापेक्ष होती है । वर्धमान अवधि : द्रव्यचतुष्टयी की वृद्धि-हानि
अंगुलमा लिया, भागमसंखेज्ज दोसु संखेज्जा । अंगुलमावलियंतो, आवलिया अंगुलपुहत्तं ॥ हत्थम्मि मुहुत्ततो, दिवसंतो गाउयम्मि बोद्धव्वो । जोयणदिवसपुहत्तं पक्खतो पणवीसाओ ॥ भरहम्मि अद्धमासो, जंबुद्दीवम्मि साहिओ मासो । वासं च मणुयलोए, वासपुहत्तं च रुयगम्मि ।। संखेज्जम्मि उ काले, दीवसमुद्दा वि हुंति संखेज्जा । कालम्मि असंखेज्जे, दीवसमुद्दा उ भइयव्वा ॥ ( नन्दी १८/३-६) अंगुल के असंख्य भाग क्षेत्र को देखने वाला काल की दृष्टि से आवलिका के असंख्येयभाग तक देखता है । अंगुल के संख्येय भाग क्षेत्र को देखने वाला आवलिका के संख्येयभाग तक देखता है । अंगुल जितने क्षेत्र hi देखने वाला भिन्न (अपूर्ण) आवलिका तक देखता है । काल की दृष्टि से एक आवलिका तक देखने वाला क्षेत्र की दृष्टि से अंगुल पृथक्त्व ( दो से नौ अंगुल) क्षेत्र को देखता है ।
एक हाथ जितने क्षेत्र को देखने वाला अन्तर्मुहूर्त जितने काल तक देखता है, एक गव्यूत ( गाऊ) क्षेत्र को देखने वाला अन्तदिवस काल ( एक दिन से कुछ कम ) तक देखता है । एक योजन क्षेत्र को देखने वाला दिवस पृथक्त्व ( दो से नौ दिवस ) काल तक देखता है । पच्चीस योजन क्षेत्र को देखने वाला अन्तःपक्ष काल
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