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क्षायोपशमिक अवधिज्ञान
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अवधिज्ञान
(नन्दी
७)
के संख्येय भाग को तथा कालतः पल्योपम के संख्येय भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान भाग को जानता है। कर्मद्रव्य की वर्गणाओं को देखने दुण्हं भवपच्चइयं, तं जहा ... देवाण य, नेरइयाण य । वाला अवधिज्ञानी क्षेत्रतः लोक के संख्येय भागों को और कालतः पल्योपम के संख्येय भागों को जानता है। देवता और नारक...... इन दोनों का अवधिज्ञान पूरे लोक को देखता हुआ अवधिज्ञानी कालत: कुछ कम भवप्रत्ययिक होता है। पल्योपम को जान लेता है।
जहा पक्खीणं विज्जादिसयादिकारणविरहियाणवि तेयाकम्मसरीरे, तेआदब्वे अ भासदव्वे अ। भवपच्चएण चेव आगासगमणलद्धी भवति । एवं बोद्धव्वमसंखिज्जा, दीवसमुद्दा य कालो अ॥
देवणेरइयाणं भवपच्चइया ओहिणाणलद्धी भवति । (आवनि ४३)
(आवचू १ पृ ३७) तैजस शरीर, कार्मण शरीर, तेजस द्रव्य और भाषा जैसे पक्षियों को बिना किसी विद्यातिशय के आकाशद्रव्य को जानने वाला अवधिज्ञानी असंख्येय द्वीप-समुद्रां गमन की लब्धि जन्म से ही प्राप्त होती है, वैसे ही देव और असंख्येय काल को जानता है।
और नारकों के अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक होता है। दवाओ असंखिज्जे, संखेज्जे आवि पज्जवे लहइ । ओही खओवसमिए भावे भणिओ भवो तहोदइए । दो पज्जवे दुगुणिए, लहइ य एगाउ दव्वाउ। तो किह भवपच्चइओ वोत्तुं जुत्तोऽवही दोण्हं।।
(आवनि ६४) सो वि हु खओवसमओ किंतु स एव उ खओवसमलाभो । एगं दव्वं पेच्छं खंधमणं वा स पज्जवे तस्स ।
तम्मि सह होअवस्सं भण्णइ भवपच्चओ तो सो॥ उक्कोसमसंखिज्जे संखिज्जे पेच्छइ कोइ ।।
(विभा ५७३,५७४) दो पज्जवे दुगुणिए सवजहण्णण पेच्छए ते य ।
अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव है और देवगतिवण्णाईय चउरो नाणते पेच्छइ कयाइ ।।
नरकगति औदयिक भाव है, तब देव और नारक का (विभा ७६१,७६२)
अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक कैसे हो सकता है ? देव-नारक अवधिज्ञानी जघन्यत: प्रत्येक द्रव्य के वर्ण, गन्ध, को अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से ही रस और स्पर्श लक्षणात्मक चार पर्यायों को जानता है। प्राप्त होता है, किन्तु उस भव में उनके अवश्य होता है. मध्यम अवधि में वह अनेक भेद वाले संख्येय पर्यायों को इसलिए वह भवप्रत्ययिक अवधि कहलाता है। जानता है।
क्षायोपशमिक अवधिज्ञान उत्कृष्ट अवधिज्ञानी प्रत्येक द्रव्य के असंख्येय पर्यायों
को हेऊ खोवसमियं ? खओवसमियं-तयावरणिको जानता है, अनन्त पर्यायों को कभी नहीं जानता।
ज्जाणं कम्माण उदिण्णाणं खएणं, अणदिण्णाणं उवसमेणं ""खेत्त-कालदुगं ।
ओहिनाणं समुप्पज्जइ।
(नन्दी ८) रूवाणगयं पेच्छइ न य तं चिय तं जओऽमृत्तं ।।
येन कारणेन अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणामुदीर्णानां (विभा ६८८)
क्षयेण अनुदीर्णानाम् -- उदयावलिकामप्राप्तानामुपशमेनअवधिज्ञान का विषय रूपी-मूर्त द्रव्य है, अतः वह
विपाकोदयविष्कम्भणलक्षणेनावधिज्ञानमुत्पद्यते, तेन अमूर्त क्षेत्रकाल को नहीं देखता। मूर्त द्रव्य से सम्बद्ध
कारणेन क्षायोपशमिकमित्युच्यते। (नन्दीमत् प ७७) क्षेत्र-काल को देखता है।
उदयावलिका में प्रविष्ट अवधिज्ञानावरण कर्म के ३. अवधिज्ञान के दो प्रकार
क्षय से, अनुदीर्ण अवधिज्ञानावरण कर्म के उपशम से - आहिनाणपच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा.- विपाकोदय को रोक देने से जो अवधिज्ञान प्राप्त होता भवपच्चइयं च खओवसमियं च ।। (नन्दी ७) है, वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान है। अवधिज्ञान प्रत्यक्ष दो प्रकार का है--
"अहवा-गुणपडिवण्णस्स अणगारस्स ओहिनाणं १. भवप्रत्ययिक-भवहेतुक अवधिज्ञान ।
समुप्पज्जइ।
(नन्दी ८) २. क्षायोपशमिक-अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयो- गुणप्रतिपन्न अनगार को अवधिज्ञान की प्राप्ति होती
पशम से उत्पन्न अवधिज्ञान। है।
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