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अवधिज्ञान
अवधिज्ञान का विषय
अवशब्दोऽधःशब्दार्थः । अव अधोऽयो विस्तृतं वस्तु अनन्त भावों (पर्यायों) को जानता-देखता है। वे अनन्त धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः ।।
- भाव भी सब भावों का अनन्तवां भाग ही हैं। अवधिर्मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया .. तेआभासादव्वाण, अन्तरा इत्थ लहइ पट्टवओ। प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः ।
गुरुलहुअअगुरुलहुअं, तंपि अ तेणेव निट्ठाइ ।। अवधानम्-आत्मनोर्थसाक्षात्करणव्यापारोऽवधिः ।
(आवनि ३८) (नन्दीमत् प६५) । पट्टवओ नामावहिनाणस्सारंभओ तयाईए । अव शब्द का अर्थ है-अधः । अधो-अधोवर्ती रूपी उभयाजोग्गं पेच्छइ तेयाभासंतरे दवं ॥ द्रव्यों को विशेष रूप से जानता है, वह अवधिज्ञान है। गुरुलहु तेयासन्नं भासासन्नमगुरुं च पासे ।।
अवधि का अर्थ है-मर्यादा । जिस ज्ञान की मर्यादा आरंभे जं दिट्ठ दणं पडइ तं चेक : है केवल रूपी द्रव्यों को जानना, वह अवधिज्ञान है ।
(विभा ६२८,६२९) ___ अर्थ को साक्षात् करने का जो आत्मप्रयत्न है, अवधिज्ञानी प्रारम्भ में तेजसवर्गणा और भाषावर्गणा अवधान है, वह अवधिज्ञान है।
के अन्तरालवर्ती गुरुलघु और अगुरुलघुपर्याय वाले द्रव्य२. अवधिज्ञान का विषय
पुद्गलों को जानता है। वे पुद्गल तैजस और भाषा के तं समासओ चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दव्वओ, अयोग्य होते हैं। उनमें तेजसद्रव्यासन्न पुद्गल गुरुलघु खेत्तओ, कालओ, भावओ। तत्थ दवओ णं ओहिनाणी और भाषाद्रव्यासन्न पुद्गल अगुरुलघ होते हैं। जहण्णेणं अणंताई रूविदव्वाइं जाणइ पासइ । उक्कोसेणं
अवधिज्ञानावरण का उदय हो जाने पर प्रतिपाति सव्वाइं रूविदव्वाइं जाणइ पासइ ।।
अवधिज्ञान उतने द्रव्य को जानकर समाप्त हो जाता खेत्तओ णं ओहिनाणी जहण्णणं अंगूलस्स असंखेज्जइभागं जाणइ पासइ । उक्कोसेणं असंखेज्जाइं अलोगे तेयकसरीरस्स अतिथूरत्तणेण अग्गहणपाउग्गाणि लोयमेत्ताई खंडाई जाणइ पासइ ।।
दव्वाणि । भासाए य अतिसुहमत्तणेण अग्गहणपाउग्गाणि कालओ णं ओहिनाणी जहण्णेणं आवलियाए असंखे
दवाणि । ताणि अंतराले वट्टमाणाणि दव्वाणि गुरुलहुज्जइभागं जाणइ पासइ। उक्कोसेणं असंखेज्जाओ याणि अगुरुलहुयाणि य भण्णं ति। (आव १५५०) ओसप्पिणीओ उस्सप्पिणीओ अईयमणागयं च कालं
अतिस्थूल होने से तैजस शरीर के द्रव्य ग्रहण
प्रायोग्य नहीं हैं और अतिसूक्ष्म होने से भाषा के द्रव्य जाणइ पासइ। भावओ णं ओहिनाणी जहण्णणं अणंते भावे जाणइ
भी ग्रहणप्रायोग्य नहीं हैं। तैजस और भाषा के अन्तपासइ । उक्कोसेण वि अणते भावे जाणइ पासइ, सव्व
रालवर्ती द्रव्य गुरुलघु और अगुरुलघु-दोनों हैं और वे भावाणमणंतभागं जाणइ पासइ।
ही अवधिज्ञान के ग्रहणप्रायोग्य हैं। अवधिज्ञान का विषय चार प्रकार का है
जति पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं वति ततो विसुद्धद्रव्य से -अवधिज्ञानी जघन्यतः अनन्त रूपी द्रव्यों परिणामगो ओहिणा परिवड्ढमाणेण उवरिं जाव अचित्तको तथा उत्कृष्टतः सब रूपी द्रव्यों को जानता-देखता महाखंधो ताव पासति । हेट्टावि जाव परमाणू पोग्गला
ताव पासति।
(आवचू १४८) क्षेत्र से--अवधिज्ञानी जघन्यतः अंगुल का असंख्या
यदि प्रशस्त अध्यवसाय होते हैं तो विशुद्धपरिणामी तवां भाग तथा उत्कृष्टत: अलोक में लोकप्रमाण असंख्य अवधिज्ञानी वर्धमान अवधिज्ञान से अधिक से अधिक खण्डों को जानता-देखता है।
अचित्तमहास्कन्ध तक और कम से कम परमाणु-पुद्गल काल से--अवधिज्ञानी जघन्यतः आवलिका के तक देखता है। असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है तथा उत्कृष्टतः संखिज्ज मणोदव्वे, भागो लोगपलियस्स बोद्धव्वो। अतीत और अनागत काल के असंख्यात अवसर्पिणी- संखिज्ज कम्मदव्वे, लोए थोवणगं पलियं ।। उत्सर्पिणी को जानता देखता है।
(आवनि ४२) भाव से-अवधिज्ञानी जघन्यतः तथा उत्कृष्टतः मनोद्रव्य को देखने वाला अवधिज्ञानी क्षेत्रतः लोक
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