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अपूर्वकरण
अवगाहना अपूर्वकरण-आत्मा के विशिष्ट परिणाम से राग- इंदिय-विसय-कसाए परीसहे वेतणा उवस्सग्गे ।
द्वेषात्मक ग्रन्थि को तोड़ने की चेष्टा एते अरिणो हंता, अरिहंता तेण उच्चति ॥ करना । करण का दूसरा प्रकार ।
(विभा ३५६२ कोवृ पृ७०६) (द्र. करण)
इंद्रिय-विषय, कषाय, वेदना, परीषह और उपअप्काय-जीवनिकाय का दूसरा भेद ।
सर्ग-- इन शत्रओं का नाश करने वाले अरिहंत कहलाते (द. जीवनिकाय)
अरिहन्ति वन्दण-णमंसणाणि अरहन्ति पूय-सक्कारं । अप्रतिपाति-अवधिज्ञान का एक प्रकार, जो
सिद्धिगमणं च अरहा अरहन्ता तेण दुचंति ।। उत्पन्न होकर नष्ट नहीं होता।
देवासुरमणुआणं अरहा पूया सुरुत्तमा जम्हा । (द्र. अवधिज्ञान)
""अरिहंता तेण वुच्चंति ।। अप्रत्यख्यानचतुष्क- (द्र. कषाय)
(विभा ३५६४,३५६५ कोवृ पृ ७०६) अप्रमत्तसंयत--जो पूर्ण व्रती और अप्रमादी होता
जिनमें सिद्धिगमन की अर्हता है, वे अर्हत् हैं। है, उसकी आत्म-विशुद्धि । सातवां
सुर, असुर, मनुष्य -ये सब जिनकी वंदना, पूजागुणस्थान । (द्र. गुणस्थान) अर्चा करते हैं, वे अर्हत् हैं। अप्रमाद-जागरूकता (द्र. प्रमाद)
जस्स न रहो संभवति अरहा। अभव्य-जिसमें मुक्त होने की योग्यता नहीं है,
(अनुचू पृ ४३)
जिसके लिए कोई रहस्य नहीं होता, वे अरह/ वह प्राणी।
(द्र. भव्य) अर्हत् हैं। अभिनन्दन--चौथे तीर्थंकर । (द्र. तीर्थंकर) अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीअभ्युत्थान-गुरुपूजा, आचार्य आदि गरुजनों के त्यहन्तः -- तीर्थकराः।
(आवमव प ७९) आने पर खडे होना, सम्मान करना ।
____ जो अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, देवदुंदुभि,
स्फटिक सिंहासन, भामंडल, छत्र, चामर-इन आठ सामाचारी का एक भेद।
महाप्रातिहार्यों के अतिशय से सम्पन्न हैं, वे अर्हत्-- (द्र. सामाचारी) तीर्थंकर हैं।
(द्र. तीर्थंकर) अयोगिकेवली-जिसके सम्पूर्ण योग का निरोध
जह नरवइणो आणं अइक्कमंता पमायदोसेणं । हो जाता है, जो शैलेशी अवस्था पावंति बंधवहरोहछिज्जमरणावसाणाई ॥ को प्राप्त है, उसकी आत्म- तह जिणवराण आणं अइक्कमंता पमायदोसेणं । विशुद्धि । चौदहवां गुणस्थान । पावंति दुग्गइपहे विणिवायसहस्सकोडीओ।। (द्र. गुणस्थान)
(ओभा ५४,४६) अरनाथ-अठारहवें तीर्थंकर । (द्र. तीर्थंकर) ।
जैसे प्रमादवश राजाज्ञा का अतिक्रमण करने वाला
बंध, वध, रोध (निग्रह), छेदन और अन्त में मृत्यु को अरिष्टनेमि -बाईसवें तीर्थंकर । (द्र. तीर्थंकर)
__प्राप्त करता है, वैसे ही अर्हत्-आज्ञा का अतिक्रमण अर्थावग्रह --पदार्थ का जाति, द्रव्य, गुण आदि की करने वाला प्रमत्त व्यक्ति अनन्त दुःखों को प्राप्त करता
कल्पना से रहित अवबोध ।
(द. आभिनिबोधिकज्ञान) अलोक - आकाश का वह भाग, जिसमें केवल अर्हत-तीर्थकर
एक आकाश द्रव्य हो। (द्र. लोक) ..."अरिणो हंता रयं हंता अरिहंता तेण वुच्चंति ॥ अवगाहना जीव और पुद्गल के द्वारा व्याप्त (आवनि १०७६)
क्षेत्र। (देखें-पन्नवणा पद २१) जो कर्मशत्रु का नाश करते हैं, कर्मों के उपादान उत्सेधांगुल से शरीर की अवगाहना का माप । का नाश करते हैं, वे अरिहंत --- अर्हत् कहलाते हैं ।
(द्र. अंगुल)
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