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अपर्यवसितश्रुत
अनुयोग
अपृथक्त्व अनुयोग में एक सूत्र की व्याख्या चरणकरणानु- अनुयोग-विधि के तीन स्थान हैं-- योग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, द्रव्यानुयोग-इन १. सूत्र और अर्थ के प्रतिपादन का क्रम । चारों अनुयोगों से की जाती है।
२. नियुक्ति सहित सूत्र और अर्थ का प्रतिपादन । पृथक्त्व अनुयोग
३. निरवशेष-प्रसंग-अनुप्रसंग सहित प्रतिपादन । जावं ति अज्जवइरा अपुहत्तं कालियाणुओगस्स ।
सव्वे काउस्सगं करेंति सव्वे पुणोऽवि वंदति । तेणारेण पुहत्तं कालियसुय दिट्ठिवाए य ।।
णासण्णे नाइदूरे गुरुवयणपडिच्छगा होति ।।
(आवनि ७६३) णिद्दाविगहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । आसी पुरा सो नियओ अणुओगाणमपुहुत्तभावम्मि । भत्तिबहुमाणपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ।। संपइ नत्थि पुहुत्ते होज्ज व पुरिसं समासज्ज ।
अभिकखतेहिं सूहासियाई वयणाई अत्थसाराई।
(विभा ९५०) विम्हियमुहेहिं हरिसागएहिं हरिसं जणंतेहिं ।। आर्यरक्षित से पहले अपृथक्त्व अनुयोग था- गुरुपरिओसगएणं गुरुभत्तीए तहेव विणएणं । कालिकश्रुत आदि प्रत्येक सूत्र में चारों (चरणकरण, इच्छिय सुत्तत्थाणं खिप्पं पारं समुवयंति ॥ धर्मकथा, गणित और द्रव्य) अनुयोगों का युगपत् प्रयोग
(आवनि ७०६-७०९) होता था । आर्य रक्षित ने कालिकश्रुत और दृष्टिवाद में
अनुयोग को प्राप्त करने के इच्छुक सभी शिष्य पृथक्त्व अनुयोग की व्यवस्था की। पृथक्त्व अनुयोग में कायोत्सर्ग करते हैं, गुरु को वंदना करते हैं। वे गुरु
त्र की एक-एक अनुयोग से व्याख्या की जाती से न अधिक निकट और न अति दूर, मर्यादित दूरी तक है। यदि अध्येता प्राज्ञ हो तो चारों अनुयोगों और सब बैठते हैं। नयों से व्याख्या की जा सकती है।
शिष्य निद्रा, विकथा को छोड़ कर, त्रिगुप्त, करबद्ध देविदवं दिएहि महाण भावहिं रक्खियज्जेहिं । तथा सावधान होकर भक्तिबहुमानपूर्वक गुरुवाणी को जुगमासज्ज विभत्तो अणुओगो तो कओ चउहा।। सुनते हैं। नाऊण रक्खियज्जो मइ-मेहा-धारणासमग्गं पि।
उस समय वे जिज्ञासा से अर्थसार बाले सुभाषित किच्छेण धरेमाणं सुयण्णवं पूस मित्तं पि ।।
वचनों को सुनते हैं और उनका वदन विस्मय और हर्ष अइसयकओवओगो मइ-मेहा-धारणाइपरिहीणे ।
से प्रफुल्लित हो जाता है। नाऊणमेस्सपुरिसे खेत्त-कालाणुरूवं च ।। वे विनीत शिष्य गुरु के सन्तुष्ट होने पर, गुरुभक्ति (विभा २२८८, २२९०) और विनय से सूत्र और अर्थ के अवबोध का शीघ्र ही
पार पा लेते हैं। देवेन्द्र द्वारा वन्दित आर्यरक्षित ने देखा कि पुष्यमित्र जैसा बुद्धि, मेधा और धारणा से सम्पन्न प्राज्ञ शिष्य भी अनेक सिद्ध-एक समय में अनेक जीवों का सिद्ध
होना। श्रुतरूप समुद्र का अवगाहन कठिनाई से कर रहा है,
(द्र. सिद्ध) तब भविष्य में अल्प बुद्धि, मेधा और शिथिल धारणा अन्यत्व अनुप्रेक्षा-मैं शरीर से भिन्न हं और शरीर वाले व्यक्ति पूरे श्रुत का समग्रता से अवगाहन कैसे कर
मुझ से भिन्न है-इस सचाई पायेंगे ? तब युग, क्षेत्र और काल के अनुरूप उन्होंने
की अनुभूति करना। शिष्यों पर अनुग्रह कर पृथक्त्व अनुयोग की व्यवस्था
(द्र. अनुप्रेक्षा) की।
अन्यलिंगसिद्ध-अन्य साधुओं के वेश में मुक्त होने ७. अनुयोग-विधि
वाले।
(द्र. सिद्ध) सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसओ भणिओ। अपरिग्रह-ममत्व-विसर्जन । (द्र. महाव्रत) तइओ य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥ अपर्यवसितश्रुत-वह श्रुत जो अंतरहित है। (नन्दी १२७।५)
___(.श्रुतज्ञान)
हा हा
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