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अनुप्रेक्षा
जन्म लेना न पड़े । भोग हमारे लिए अप्राप्त नहीं हैंहम उन्हें अनेक बार प्राप्त कर चुके हैं। राग-भाव को दूर कर श्रद्धापूर्वक श्रेय की प्राप्ति के लिए हमारा प्रयत्न युक्त है ।
जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सोहु कंखे सुए सिया ||
( उ १४/२७ ) जिसकी मृत्यु के बच कर पलायन
कल की इच्छा वही कर सकता है, साथ मैत्री हो, जो मौत के मुंह से कर सके और जो जानता हो— मैं नहीं मरूंगा । १२. लोक अनुप्रेक्षा
पंचत्थिकायमइयं, लोग मणाइणिहणं जिणक्खायं । णामाइभेयविहियं, तिविहमहोलोयभेयाई ॥ ( आवहावृ २ पृ ६३ ) जहां धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये पांच अस्तिकाय हैं, वह लोक है। उसकी न आदि है और न अंत। उसके तीन विभाग हैं - ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक ।
१३. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा
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भ्रूण वि माणुसत्तणं, आरिअत्तं पुणरावि दुल्लहं । बहवे दसुया मिलेक्खुया... लद्धूण वि आरियत्तणं, अहीणपंचिदियया हु दुल्लहा । विलिदियया हु दीसई"
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अहीणपंचिदियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा । कुतित्थिनिसेवाए जणे
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लक्षूण वि उत्तमं सुई, सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा । मिच्छत्तनिसेवए जणे "
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धम्मं पि हु सद्दहंतया, दुल्लहया काएण फासया । इह कामगुणेहि मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए ।। ( उ १०।१६-२० )
मनुष्य जन्म दुर्लभ है। उसके मिलने पर भी आर्यत्व पाना और भी दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मनुष्य होकर भी दस्यु और म्लेच्छ होते हैं ।
आर्य देश में जन्म मिलने पर भी पांचों इन्द्रियों से पूर्ण स्वस्थ होना दुर्लभ है। बहुत सारे लोग इन्द्रियहीन दीख रहे हैं ।
पांचों इन्द्रियां पूर्ण होने पर भी
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उत्तम धर्म की
अनुप्रेक्षा के परिणाम
श्रुति दुर्लभ है। बहुत सारे लोग कुतीर्थिकों की सेवा करने वाले होते हैं ।
उत्तम धर्म की श्रुति मिलने पर भी श्रद्धा होना और अधिक दुर्लभ है। बहुत सारे लोग मिथ्यात्व का सेवन करने वाले होते हैं ।
उत्तम धर्म में श्रद्धा होने पर भी उसका आचरण करने वाले दुर्लभ हैं । इस लोक में बहुत सारे लोग कामगुणों में मूच्छित होते हैं, इसलिए भगवान् ने कहाहे गौतम! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर ।
इह जीवियं अणियमेत्ता, पन्भट्ठा समाहिजोएहि । ते कामभोगरसगिद्धा, उववज्जंति आसुरे काए ॥ ( उ ८।१४) जो इस जन्म में जीवन को अनियंत्रित रखकर समाधि - योग से परिभ्रष्ट होते हैं, वे कामभोग और रसों में आसक्त बने हुए पुरुष असुर-काय में उत्पन्न होते हैं ।
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तत्तो वि उवट्टित्ता, संसारं बहुं अणुपरियडंति । बहुकम्मले लत्ताणं, बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं ॥ ( उ ८।१५) वहां से निकल कर भी वे संसार में बहुत पर्यटन करते हैं । वे प्रचुर कर्मों के लेप से लिप्त होते हैं । इसलिए उन्हें बोधि प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है । १४. अनुप्रेक्षा के परिणाम
अणुहाए णं आउयवज्जाओ सत्तकम्मप्पगडीओ afractureद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, ओहस्सकालट्ठिइयाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च णं कम्मं सिय बंधइ सिय नो बंधइ | असायावेयणिज्जं च णं कम्मं उवचिणाइ | अणाइयं च णं अणवदग्गं संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयइ । अनुप्रेक्षा के छह परिणाम हैं१. कर्म के गाढ बंधन का शिथिलीकरण । २. दीर्घकालीन कर्म- स्थिति का अल्पीकरण । ३. तीव्र कर्म विपाक का मंदीकरण ।
नो भुज्जो भुज्जो दीहमद्धं चाउरंतं (उ२९/० २३)
४. प्रदेश - परिमाण का अल्पीकरण ।
५ असातावेदनीय कर्म के उपचय का अभाव । ६. संसार का अल्पीकरण ।
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