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धर्म अनुप्रेक्षा
अनुप्रेक्षा हो जाते हैं, जैसे उन्नत प्रदेश से पानी।
जब तक बुढ़ापा पीड़ित न करे, व्याधि न बढे और पाणवहमुसावाया, अदत्तमेहुणपरिग्गहा घिरओ । इन्द्रियां क्षीण न हों, तब तक धर्म का आचरण करने में राईभोयणविरओ, जीवो भवइ अणासवो ॥ व्यक्ति तत्पर रहे।
(उ ३०१२) अद्धाणं जो महंतं तु, सपाहेओ पवज्जई। प्राणवध, मृषावाद, अदत्त-ग्रहण, मैथुन, परिग्रह गच्छंतो सो सुही होइ, छुहातहाविवज्जिओ ।। और रात्रि-भोजन से विरत जीव अनाश्रव होता है।
एवं धम्म पि काऊणं, जो गच्छइ परं भवं । पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ।
गच्छंतो सो सही होइ, अप्पकम्मे अवेयणे ।। अगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो ।।
(उ १९।२०,२१) (उ ३०१३) जो मनुष्य पाथेय के साथ यात्रा का लम्बा मार्ग पांच समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, लेता है, वह भूख-प्यास से पीड़ित नहीं होता और सुखअकषाय, जितेन्द्रिय, ऐश्वर्य आदि का गर्व नहीं करने पूर्वक यात्रा करता है ।। वाला और निःशल्य जीव अनाश्रव होता है।
इसी प्रकार जो मनुष्य धर्म की आराधना कर १०. निर्जरा अनुप्रेक्षा
परभव में जाता है, वह अल्पकर्म वाला और वेदना
रहित होकर जीवन-यापन करता हआ सुखी होता है। जहा महातलायस्स, सन्निरुद्ध जलागमे ।
जहा सागडिओ जाणं, समं हिच्चा महापहं। उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ।।
विसमं मग्गमोइण्णो, अक्खे भग्गम्मि सोयई। एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे ।
एवं धम्म विउक्कम्म, अहम्म पडिवज्जिया । भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जइ ।।
बाले मच्चमुहं पत्ते, अक्खे भग्गे व सोयई ॥
(उ ३०१५,६) जिस प्रकार कोई बड़ा तालाब जल आने के मार्ग
(उ ५।१४,१५) का निरोध करने से, जल को उलीचने से तथा सूर्य के
जैसे कोई गाडीवान समतल राजमार्ग को जानता ताप से सूख जाता है, उसी प्रकार संयमी पुरुष के पाप
हआ भी उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है, कर्मों के आने के मार्ग का निरोध होने से करोडों भवों वह गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है। के संचित कर्म तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण हो जाते हैं।
इसी प्रकार धर्म का उल्लंघन कर, अधर्म को तवनारायजुत्तेण, भेत्तूणं कम्मकंचुयं ।
स्वीकार कर, मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ अज्ञानी धुरी मुणी विगयसंगामो, भवाओ परिमुच्चए॥
टूटे हुए गाड़ीवान् की तरह शोक करता है।
(उ ९।२२) सोही उज्जुयभूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिद्रई । तप-रूपी लोह-बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म- निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्त व्व पावए । रूपी कवच को भेद कर संग्राम का अन्त करने वाला
(उ ३।१२) मुनि संसार से मुक्त हो जाता है।
शुद्धि उसे प्राप्त होती है, जो ऋजुभूत होता है।
धर्म उसमें ठहरता है, जो शुद्ध होता है। जिसमें धर्म जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई। ठहरता है, वह घृत से अभिषिक्त अग्नि की भांति परम धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइओ॥ निर्वाण समाधि की तेजस्विता को प्राप्त होता है।
(उ १४।२४) अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो, जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती।
जहिं पवना न पुणब्भवामो । धर्म की आराधना करने वाले की रात्रियां सफल बीतती
अणागय नेव य अत्थि किंचि,
सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं ॥ जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढई ।
(उ १४।२८) जाविदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे ॥
भगुपूत्रों ने अपने पिता से कहा-हम आज ही उस (द ८।३५) मुनि-धर्म को स्वीकार कर रहे हैं, जहां पहुंच कर फिर
११. धर्म अनु
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